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कारिका-८]
तत्त्वदीपिका कारणसे उसकी पराजय नहीं हो सकती। इस बातको पहिले भी बतला आये हैं कि अपने साध्यको सिद्ध करके यदि वादी नाचता भी फिरे तो इसमें कोई दोष नहीं है। प्रतिवादी यदि अपने पक्षकी सिद्धि करता है, तो स्वपक्षसिद्धिसे ही प्रतिवादीकी जय तथा यादीकी पराजय सुनिश्चित है, न कि अप्रस्तुत वस्तुके वचनके कारण । इसी प्रकार साधनके सब अगोको नहीं कहनेसे वादोको निग्रह स्थान होता है, तथा वादीके हेतु दोष न होनेपर भी दोष बतलानेसे और दोष होनेपर भी नहीं बतलानेसे प्रतिवादीको निग्रह स्थान होता है, ऐसा मानना ठीक नहीं है । जय या पराजय कम कहनेसे या अधिक कहनेसे, दोष बतलानेसे या दोष नहीं बतलानेसे नहीं होती है। किन्तु परपक्षका सयुक्तिक खण्डन करके अपने पक्षको सिद्ध करनेसे अपनी जय और परकी पराजय होती है। किसी एककी स्वपक्षसिद्धि होनेसे ही दूसरेको पराजय हो जाती है । असाधनांगवचनसे अथवा अदोषोद्भावनसे किसीकी पराजय नहीं होती।
उपर्युक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो जय-पराजयकी इच्छा रखता है उसको स्वपक्षसिद्धि एवं परपक्षदूषण ये दो बातें अवश्य करना चाहिए। यही कारण है कि स्वामी समन्तभद्राचार्यने 'स त्वमेवासि निर्दोषः' इस कारिकाके द्वारा स्वपक्षसिद्धि और त्वन्मतामृतबाह्यानाम्' इस कारिकाके द्वारा परपक्षका निराकरण किया है। यद्यपि स्वपक्षसिद्धिसे ही परपक्षका निराकरण हो जाता है, फिर भी स्पष्ट बोध करानेके लिए परपक्षका निराकरण करना आवश्यक है। गम्यमान बातके कहने में कोई दोष नहीं है।
प्रश्न-एकान्तवादियोंके यहाँ भो पुण्य-पापरूप कर्म, परलोक आदिकी प्रसिद्धि होनेसे उनके इष्टदेव भी आप्त क्यों नहीं हो सकते ? इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं ?
कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् ।
एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु ॥ ८ ॥ हे भगवन् । जो वस्तुके अनन्त धर्मोमेंसे किसी एक ही धर्मको मानते हैं ऐसे एकान्तग्रहरक्त नर अपने भी शत्रु हैं, और दूसरेके भी शत्रु हैं । उनके यहाँ पुण्यकर्म एवं पापकर्म तथा परलोक आदि कुछ भी नहीं बन सकता है।
यह पहिले बतला चुके हैं कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसमें केवल एक ही धर्म हो। फिर भी कुछ लोग
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