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________________ १०० आप्तमीमांसा [ परिच्छद- १ से यदि एक भी कम हो तो न्यून नामक निग्रहस्थान होता है, ऐसा न्यायसूत्रमें कहा गया है । इसलिये प्रतिज्ञा तथा हेतुके प्रयोग में समान तर्क पाया जाता है । यदि हेतुका प्रयोग आवश्यक है तो प्रतिज्ञाका प्रयोग भी आवश्यक है । फिर भी यदि प्रतिज्ञाका प्रयोग करनेसे अतिरिक्त वचनके कारण असाधनाङ्गवचन ( जो साधनका अंग नहीं है उसको कहना) नामक निग्रहस्थान होता है, तो शब्द में क्षणिकत्व सत्त्व हेतुसे ही सिद्ध हो जाता है, फिर शब्दमें क्षणिकत्वकी सिद्धिके लिए उत्पत्तिमत्त्व, कृतकत्व आदि हेतुओं का प्रयोग करनेसे अतिरिक्त वचन के कारण वादीकी पराजय निश्चत है । कृतकत्व, प्रयत्नानान्तरीयकत्व इत्यादि हेतुओंमें 'क' वर्ण को अतिरिक्त वचन होनेसे भी पराजय होगी । यदि यह नियम माना जाय कि अतिरिक्त वचन होने से असाधनाङ्ग वचन नामक निग्रहस्थानकी प्राप्ति होती है, और ऐसे निग्रहस्थान से वादीकी पराजय होती है, तो शब्द में क्षणिकता सिद्ध करनेके लिये सत्त्व, उत्पत्तिमत्त्व, कृतकत्व आदि अनेक हेतुओंके प्रयोगके कारण अतिरिक्त वचन होनेसे स्वयं बौद्धों की पराजय होगी । 'अनित्यः शब्दः सत्त्वात्' इस प्रकार सत्त्व हेतु प्रयोगसे ही शब्दमें क्षणिकत्व सिद्ध हो जाता है । पुनः क्षणिकत्वकी सिद्धिके लिये 'उत्पत्तिमत्त्वात्' 'कृतकत्वात्' आदि हेतुओंका प्रयोग करना अतिरिक्त वचन है । 'यत् सत् तत्सर्वं क्षणिकं यथा घटः ' इतना कहने से ही शब्दमें क्षणिकत्वकी सिद्धि हो जाती है, तब 'संरचशब्द:' इस प्रकार पक्षधर्मका कथन भी अतिरिक्त वचन है । तथा हेतुके प्रयोग से ही जब काम चल सकता है, तब हेतुका समर्थन भी अक्तिरिक्त वचन है । उक्त अतिरिक्त वचनोंके प्रयोगसे असाधनाङ्ग वचन निग्रहस्थान होनेके कारण वादीकी पराजय नियमसे होगी । अतः इस दोषको दूर करनेके लिये यह मानना आवश्यक है कि गम्यमान अर्थको कहने के कारण यद्यपि प्रतिज्ञा आदिका प्रयोग अतिरिक्त वचन है, फिर भी प्रतिज्ञा का प्रयोग करनेसे असाधनाङ्गवचन नामक निग्रहस्थान नहीं होता है, और न इतने मात्र से वादीकी पराजय होती है । शंका- यदि अतिरिक्त वचनसे निग्रहस्थान नहीं होता है, तो अप्रस्तुत (जिसका प्रकरण न हो ) वस्तुके प्रयोगसे भी निग्रहस्थान नहीं होगा । जैसे वाद-विवाद के समय कोई नाटक करने लगे या ढोल बजाने लगे तो यह भी निग्रहस्थान नहीं होगा । उत्तर - केवल अप्रस्तुत बातके प्रयोगके कारण वादीका निग्रह कभी नहीं होगा । वादी यदि अपने पक्षकी सिद्धि कर रहा है तो अन्य किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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