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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
इच्छासे किसी विषयपर जो वाद-विवाद होता है, वह विजिगीषु कथा है। विजिगीषु कथाको बाद भी कहते हैं । यदि कोई ऐसा कहता है कि शास्त्रमें प्रतिज्ञाका प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु वादमें प्रतिज्ञाका प्रयोग ठीक नहीं है, तो उसका कहना अयुक्त है । क्योंकि यदि वादमें प्रतिज्ञाका प्रयोग अनुपयुक्त है, तो शास्त्रमें भी प्रतिज्ञाका प्रयोग अनुपयुक्त होना चाहिये, क्योंकि तत्त्वका निर्णय तो दोनोंमें समानरूपसे किया जाता है । शास्त्रमें आचार्य मन्दमति वाले शिष्योंके उपकार तथा समझानेकी दृष्टिसे प्रतिज्ञाका प्रयोग करते हैं । यही बात वादमें भी है । वादमें वाद-विवाद करनेके इच्छुक मन्दमति वाले न हों, ऐसी बात नहीं है । किन्तु वादमें भी मन्दमति वाले विजिगीषु होते हैं । अतः उनको पदार्थका ठीक-ठीक ज्ञान करानेके लिए प्रतिज्ञाका प्रयोग अरना आवश्यक है ।
बौद्ध हेतुके तीन रूप मानते हैं - पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति । हेतुका पक्षमें रहना पक्षधर्मत्व है । सपक्ष में हेतुका सद्भाव होना सपक्षसत्त्व है । विपक्षमें हेतुका न रहना विपक्षव्यावृत्ति है । जहाँ साध्य सिद्ध किया जाता है उस स्थानका नाम पक्ष है | पक्षके अतिरिक्त अन्यत्र जहाँ-जहाँ साध्य पाया जाता है वह सब सपक्ष है । जहाँ सर्वदा साध्यका अभाव पाया जाता है वह विपक्ष है । ' इस पर्वत में वह्नि है, धूम होनेसे,' इस अनुमानमें वह्नि साध्य है, धूम हेतु है, पर्वत पक्ष है, रसोईघर सपक्ष है, और सरोवर विपक्ष है । बौद्ध साध्यकी सिद्धिके लिए त्रिरूप हेतुका प्रयोग करके उसका समर्थन करते हैं । हेतुमें असिद्ध आदि दोषोंका परिहार करना अथवा हेतुकी साध्यके साथ व्याप्ति सिद्ध करके पक्ष में हेतुका सद्भाव बतलाना हेतुका समर्थन कहलाता है ।
बौद्ध हेतुके तीन भेद मानते हैं - स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि । 'यत्सत् तत्सर्वं क्षणिकं यथा घटः, संश्च शब्द:' । 'जो सत् होता है वह क्षणिक होता है, जैसे घट । शब्द भी सत् है ।' इस अनुमान में क्षणिकत्व साध्य है और सत्त्व स्वभाव हेतु है । सत्त्व हेतुका समर्थन इस प्रकार होगा । क्षणिक पदार्थ में ही सत्त्व पाया जाता है, अक्षणिक ( नित्य ) में नहीं । क्योंकि अक्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया नहीं हो सकती है । नित्य पदार्थ न तो क्रमसे काम कर सकता है, और न युगपत् । नित्य पदार्थ में अर्थक्रिया ' होने के कारण सत्त्वका अभाव निश्चित है । अतः सत्त्वकी व्याप्ति क्षणिकवके साथ ही है । यह स्वभाव हेतुका समर्थन है । 'पर्वतोऽयं वह्निमान्
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