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________________ कारिका-७] तत्त्वदीपिका ९७ उसका ज्ञान हेतु और दृष्टान्तसे ही हो जाता है। फिर भी यदि प्रतिज्ञा आदिका प्रयोग किया जायगा तो निग्रहस्थानकी प्राप्ति होगी। उक्त मत ठीक नहीं है। जो वादी निर्दोष हेतुके द्वारा अपने पक्षको सिद्ध कर रहा है, वह यदि अधिक वचनोंका प्रयोग करे तो इतने मात्रसे उसकी पराजय नहीं हो सकती। क्योंकि 'स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाभावात्', इस उक्तिके अनुसार अपने साध्यको सिद्ध करके यदि कोई नाचता भी फिरे तो ऐसा करनेसे उसे कोई दोष नहीं दिया जा सकता। और यदि वादी अपने पक्षको सिद्ध न करके अधिक वचनोंका प्रयोग कर रहा है, तो स्वपक्षसिद्धि न होनेसे ही उसकी पराजय निश्चित है, तब अधिक वचनोंके प्रयोगसे उसकी पराजय कहना व्यर्थ है। प्रतिवादी भी यदि वादीके पक्षका खण्डन करके अपने पक्षकी सिद्धि करता है, तो इतने मात्रसे ही वादीकी पराजय हो जाती है। यह कहना व्यर्थ ही है कि वादीने अधिक वचनोंका प्रयोग क्यों किया। और यदि प्रतिवादी अपने पक्षकी सिद्धि नहीं कर पाता है, तो वादीके वचनाधिक्यसे वादीकी पराजय और प्रतिवादीकी जय नहीं हो सकती है। अन्वय और व्यतिरेक दोनों साधनके अङ्ग है । अतः दोनोंके प्रयोग करनेमें कोई हानि नहीं है । ___ यही बात प्रतिज्ञा आदिके प्रयोगके विषयमें है। 'इस पर्वतमें वह्नि है', इस वचनको प्रतिज्ञा कहते। जहाँ साध्य सिद्ध किया जाता है उस स्थानको पक्ष कहते हैं, और पक्षका वचन ही प्रतिज्ञा है। प्रतिज्ञाका प्रयोग अनावश्यक नहीं है। यदि प्रतिज्ञाका प्रयोग नहीं किया जायगा तो साध्यके आधारका ज्ञान ही नहीं हो सकेगा। वादी यदि अविनाभावी हेतुसे अपने पक्षकी सिद्धि कर रहा है, तो प्रतिज्ञा आदिके प्रयोगसे उसकी पराजय नहीं हो सकती है। शिष्योंके अभिप्रायके अनुसार उदाहरण, उपनय और निगमनका प्रयोग करना आवश्यक भी है। जो विद्वान् प्रतिपत्ता प्रतिज्ञा और हेतुके प्रयोगसे ही पूरे अर्थको समझ लेता है, उसके लिए उदाहरण आदिके प्रयोग करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु जो अल्पज्ञ इतने मात्रसे नहीं समझ सकता है, उसको समझानेके लिए उदाहरण आदिका प्रयोग अवश्य करना चाहिये। ___ कथायें दो प्रकारको होती हैं-वीतराग कथा और विजिगीषु कथा । राग-द्वेष रहित गुरु-शिष्योंमें या विद्वानोंमें किसी तत्त्वके निर्णयके लिए जो परस्परमें विचार-विमर्श होता है, वह वीतराग कथा है । वीतराग कथाको शास्त्र भी कहते हैं। दो विद्वानोंमें या दो पक्षोंमें जय-पराजयकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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