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________________ ८८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ कहना चाहता है और कुछ कह देता है, किसीका नाम लेना चाहता है किन्तु उससे भिन्न अन्य किसीका नाम बोल देता है। जिसका नाम उसने बोला उसके बोलनेकी इच्छा उसको नहीं थी। इत्यादि अनेक हेतु और दृष्टान्तों द्वारा यह सिद्ध होता है कि वचनकी प्रवृत्ति विना इच्छाके भी होती है। यदि सोये हुए व्यक्तिको बोलनेकी इच्छा रहती है तो जागने पर इच्छाका स्मरण होना चाहिये, जैसे कि दूसरी इच्छाओंका स्मरण होता है। किन्तु सुषुप्त व्यक्तिकी इच्छाका स्मरण न होनेसे उसमें बोलनेकी इच्छाका अभाव मानना होगा। इसलिए वचनकी प्रवृत्ति और इच्छामें कोई कार्यकारण सम्बन्ध न होनेसे सर्वज्ञकी वचनप्रवृत्तिको विना इच्छा के माननेमें कोई विरोध नहीं है । वचनकी प्रवृत्तिका कारण चैतन्य और जिह्वा इन्द्रियकी पटुता या अविकलता ही है। ___शंका-चैतन्य तथा करणपटुता (इन्द्रियकी पूर्णता) के साथ विवक्षा भी बोलने में सहकारी कारण है और सहकारी कारणके विना कार्य नहीं होता है। इसलिये विवक्षाको भी वचन प्रवृत्तिका कारण मानना आवश्यक है। उत्तर-सहकारी कारणको नियमसे होना ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है। कहीं कहीं पर सहकारो कारणके विना भी कार्यकी उपलब्धि देखी जाती है । देखने में प्रकाश सहकारी कारण है, लेकिन रात्रिमें चलने वाले बिल्ली, उल्ल आदिको तथा जिसने अपनी आँखमें अञ्जन विशेष लगा लिया हो उसको प्रकाशके विना भी दिख जाता है। यदि चैतन्य और करणपटताके अभावमें विवक्षामात्रसे कहीं वचनकी प्रवत्ति देखी जाती तो विवक्षाको कारण मानना आवश्यक था। किन्तु चैतन्य और करणपटुताके अभावमें विवक्षामात्रसे वचनको प्रवृत्ति न होनेके कारण विवक्षा वचनकी प्रवृत्तिका आवश्यक कारण नहीं है। जिसको शास्त्रका ज्ञान नहीं है उसको शास्त्रके व्याख्यानकी इच्छा होने पर भी वह शास्त्रका व्याख्यान नहीं कर सकता। और जिसकी जिह्वा इन्द्रिय ठीक नहीं है वह बोलनेकी इच्छा होने पर भी नहीं बोल सकता। इसलिये ज्ञान और करणपटुता ही बोलनेके आवश्यक कारण हैं, विवक्षा नहीं । राग, द्वेष आदि दोषोंका समुदाय भी वचनप्रवृत्तिका कारण नहीं है। जिसप्रकार बद्धि और करणपटताका प्रकर्ष होने पर वाणीका प्रकर्ष और उनका अपकर्ष होने पर वाणीका अपकर्ष देखा जाता है, उसप्रकार दोषोंका प्रकर्ष होने पर वचनका प्रकर्ष और दोषोंका अपकर्ष होने पर वचनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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