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________________ [१५] अर्थात् सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती अर्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमेय होनेसे । जैसे अग्नि । इस प्रकार सर्वज्ञकी सम्यक् स्थिति सिद्ध होती है । शरस्वामी जो श्रेय वेदको देते हैं वही श्रेय समन्तभद्र पुरुष विशेषको देते हैं और वही उनका आप्त है । ऐसा प्रतीत होता है कि शाबरभाष्यकी उक्त पंक्तिका उत्तर देनेके लिए ही समन्तभद्रने आप्तमीमांसा रची है । शबरस्वामीका समय २५०-४०० ई० माना जाता है और यही समय समन्तभद्रका भी है । आप्तमीमांसा में विभिन्न एकान्तोंकी परीक्षाके द्वारा जैन आप्तप्रतिपादित स्याद्वादन्यायकी प्रतिष्ठा की गई है । यद्यपि स्वामी समन्त भद्र अपने आपको निर्दोष और युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् बतलाया है तथा निर्दोष पदसे 'कर्मभूभृद्धेतृत्व' और 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' पदसे सर्वज्ञत्व उन्हें अभीष्ट है और दोनोंकी सिद्धि भी उन्होंने की है। किन्तु उनकी सारी शक्ति तो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् के समर्थन में ही लगी है । उनका आप्त इसलिए आप्त नहीं है कि वह कर्मभूभृद्भेत्ता है या सर्वज्ञ है । वह तो इसीलिए आप्त है कि उसका इष्ट तत्त्व प्रमाणसे बाधित नहीं होता है । अपने आप्तकी इसी विशेषताको दर्शाते दर्शाते तथा उसका समर्थन करते-करते वे १९३वीं कारिका तक जा पहुँचते हैं, जिसका अन्तिम चरण है-' इति स्याद्वादसंस्थितिः ।' यह स्याद्वाद - संस्थिति ही उन्हें अभीष्ट है और यही आप्तमीमांसाका मुख्य ही नहीं किन्तु एकमात्र प्रतिपाद्य विषय है । आचार्य समन्तभद्रकी इस आप्तमीमांसाकी हिन्दी में कई व्याख्याएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्भवतः यह चतुर्थ व्याख्या है । इसके लेखक प्राध्यापक श्री उदयचन्द्र जी जैनदर्शन, बौद्धदर्शन और सर्वदर्शन के आचार्य होने के साथ दर्शनशास्त्र में एम० ए० भी हैं । और १४ वर्षोंसे हिन्दू विश्वविद्यालयके संस्कृत महाविद्यालय में बौद्धदर्शनके प्राध्यापक हैं । उनको 'आप्तमीमांसा', 'अष्टशती' और 'अष्टसहस्री' में चर्चित सभी दर्शनोंका तलस्पर्शी ज्ञान है । उन्होंने आप्तमीमांसा के विशेषार्थोंमें अष्टशती और अष्टसहस्रीका उपयोग करके इस व्याख्याको विशेष उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है । प्रारम्भकी तृतीय कारिकाकी व्याख्यामें उन्होंने सभी दर्शनोंका सामान्य परिचय करा दिया है । इससे पाठकोंको सब दर्शनोंके मन्तव्योंको समझने में सुगमता होगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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