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इात तर
[ १४ ] इस तरह 'शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमां सित' पदकी व्याख्या करनेके पश्चात् आचार्य विद्यानन्द कहते हैं
'इस प्रकार निःश्रेयसशास्त्र ( मोक्षशास्त्र ) के आदिमें मंगलके लिए तथा मोक्षका निमित्त होनेसे मुनियोंके द्वारा संस्तुत निरतिशय-गुणशाली भगवान् आप्तके द्वारा 'देवागमादि विभूतियोंसे मैं स्तुत्य क्यों नहीं हूँ' मानों ऐसा पूँछा जानेपर आत्महित मोक्षमार्गको चाहनेवाले मुमुक्षुजनोंके सम्यक् और मिथ्या उपदेशको प्रतिपत्तिके लिए आप्तमीमांसाको रचना करनेवाले आचार्य समन्द्रभद्र कहते हैं।
यह आप्तमीमांसाके प्रथम श्लोककी उत्थानिका है । इस उत्थानिकामें निःश्रेयसशास्त्रके आदिमें मुनियोंके द्वारा संस्तुत जो आप्त कहा गया है वह तत्त्वार्थसूत्रको लक्ष्य करके ही कहा गया है। इसीका दूसरा नाम मोक्षशास्त्र भी है। तत्त्वार्थसूत्रकी व्याख्या सर्वार्थसिद्धिका नाम मोक्षशास्त्र नहीं है। अपनी आप्तपरीक्षामें भी विद्यानन्दने कहा है
इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तुतिगोचरा ।
प्रणीताप्तपरीक्षेयं विवादविनिवृत्तये ।। अर्थात् तत्त्वार्थशास्त्रके आदिमें किये गए जिनदेवके स्तवनको लेकर यह आप्तपरीक्षा विवादको दूर करनेके लिए रची गई है।
इस प्रकार आचार्य विद्यानन्दके मन्तव्यानुसार समन्तभद्राचार्यने तत्त्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्रके आदिमें संस्तुत आप्तकी मीमांसा करने के लिए आप्तमीमांसा रची थी। अतः वे सूत्रकारके पश्चात् और वृत्तिकार देवनन्दिसे पूर्व में हुए हैं।
कुमारिलके पूर्वज शबरस्वामीने अपने शाबर भाष्यमें कहा है
'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलम् ।' (शा० भा० १।१।२)
अर्थात् वेद भूत, वर्तमान, भावी तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान करानेमें समर्थ है। आचार्य समन्तभद्रने कहा है--
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।।
--आप्तमीमांसा का०५।
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