________________
कारिका - ३ ]
तत्त्वदीपिका
विशिष्ट रचना है वह भी अनादि है । धर्मके विषय में वेद ही प्रमाण है । अन्य किसीकी गति धर्म में नहीं हैं ।
अर्थापत्ति पाँचवाँ प्रमाण है । देखा या सुना हुआ कोई पदार्थ जहाँ अन्य किसी पदार्थके अभाव में सिद्ध न हो सके, वहाँ उस अर्थकी कल्पना करना अर्थापत्ति है । जैसे 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुंक्ते' यह देवदत्त मोटा है, किन्तु दिनमें नहीं खाता है । देवदत्तके मोटापनको देखकर तथा दिनमें नहीं खाता है इस बातको जानकर कोई भी यह समझ सकता है कि देवदत्त रात्रिमें खाता है । इस प्रकार देवदत्तके मोटापनको देखकर और दिनमें भोजन न करनेकी बातको जानकर रात्रि भोजनकी कल्पना करना अर्थापत्ति है । नैयायिक-वैशेषिक अर्थापत्तिका अन्तर्भाव अनुमानमें करते हैं ।
अभावका ज्ञान करनेके लिये कुमारिलभट्टने अनुपलब्धि नामक एक पृथक् ही प्रमाण माना है । 'यहाँ घट नहीं है' इस प्रकार घटके अभावका ज्ञान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे नहीं हो सकने के कारण अभावके ज्ञानके लिए अनुपलब्धि प्रमाण मानना आवश्यक है । नैयायिक - वैशेषिकोंके अनुसार विशेषण - विशेष्यभाव नामक सन्निकर्ष जन्य प्रत्यक्षसे ही अभावका ज्ञान हो जाता है । अतः अनुपलब्धिको पृथक् प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है ।
मीमांसक प्रमाणकी प्रमाणता स्वतः तथा अप्रमाणता परतः मानते हैं । यह ज्ञान प्रमाण है, इस बातको जाननेके लिये किसी भिन्न कारणकी आवश्यकता नहीं है । किन्तु जिन कारणोंसे ज्ञान उत्पन्न हुआ है उन्हीं कारणों से ज्ञानकी प्रमाणता ( सत्यता ) का भी ज्ञान हो जाता है । मीमांसकोंके अनुसार पहिले सब ज्ञान प्रमाणरूप ही उत्पन्न होते हैं । बादमें यदि किसी ज्ञानमें कोई बाधक कारण आ जावे अथवा ज्ञानकी उत्पादक इन्द्रियमें दोषका ज्ञान हो जावे, तो वह ज्ञान अप्रमाण हो जाता है । इसी प्रकार विपर्यय ज्ञानके विषयमें भी मीमांसकोका विशिष्ट मत है । जहाँ 'शुवित्तकायां इदं रजतम्' शुक्तिमें रजतका ज्ञान होता है वहाँ एक ज्ञान नहीं है, किन्तु दो ज्ञान हैं । एक ज्ञान तो इदं रूप अर्थात् वर्तमान पदार्थका और दूसरा ज्ञान पहिले देखी हुई रजतका । पहिला ज्ञान प्रत्यक्ष है और दूसरा ज्ञान स्मृति । दोनों ज्ञान पृथक्-पृथक् हैं, किन्तु भ्रमवश दोनोंमें भेदका ज्ञान न होनेसे शीपमें चाँदीका ज्ञान हो जाता है । यथार्थ में पहिले देखी हुई चाँदीकी स्मृति ठीक-ठीक नहीं होती है । अर्थात् भ्रान्तिके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org