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________________ प्राक्कथन . वक्ताकी प्रामाणिकतासे ही वचनोंकी प्रामाणिता मानी जाती है। इसीसे आचार्य माणिक्यनन्दिने अपने ‘परीक्षामुख' नामक सूत्र-ग्रन्थमें आप्तके वचन आदिसे होनेवाले ज्ञानको आगम प्रमाण कहा है और परीक्षामुखके व्याख्याता आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने व्याख्या-ग्रन्थ 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में 'जो जिस विषयमें अवंचक है वह उस विषयमें आप्त है', ऐसा कहा है। अतः किसी धर्मपर श्रद्धा करनेसे पूर्व विचारशील व्यक्ति उसके प्रवक्ताकी प्रामाणिकताकी परीक्षा करे तो यह उचित ही है। ____ जैनधर्म न तो किसी अनादि शाश्वत ऐसे ईश्वरकी ही सत्ता स्वीकार करता है, जो इस विश्वको रचता है और प्राणियोंको उनके कर्मानुसार स्वर्ग या नरक भेजता है, और न तथोक्त अपौरुषेय वेदको ही प्रमाण मानता है। अतः जैनधर्म इन दोनोंकी उपज न होकर ऐसे महामानवकी देन है, जो निर्दोष शुद्ध परमात्मपद प्राप्त कर चुका है, किन्तु अभी मुक्त नहीं हुआ है। उसे ही अर्हन्, तीर्थंकर आदि कहते हैं। उसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।। अर्थात् जो मोक्षमार्गका नेता है, कर्मरूपी पर्वतोंका भेदन करनेवाला है और विश्वके तत्त्वोंका ज्ञाता है उसे उन गुणोंकी प्राप्तिके लिए मैं नमस्कार करता है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि संसार में परिभ्रमण करनेवाला जीव जब मोक्षमार्गमें लगकर अपने प्रयत्नोंसे कर्मोंकी शृंखलाको तोड़ देता है तब वह वीतराग और विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता ( सर्वज्ञ-सर्वदर्शी) होकर मोक्षके मार्गका उपदेश करता है । वह मोक्षमार्ग ही धर्म कहा जाता है। ___ असत्य प्रतिपादनका कारण अज्ञान तो है ही, किन्तु राग-द्वेषके वशीभूत होकर ज्ञानी भी असत्य बोलता है। जो अज्ञानवश असत्य बोलता है वह तो क्षम्य हो सकता है, परन्तु जो राग-द्वेषवश असत्य बोलता है वह अक्षम्य है। अतः पूर्ण ज्ञानके साथ पूर्ण वीतराग भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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