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________________ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-१ और आकारसे नियत वस्तुका जो असाधारण या विशेष स्वरूप है वही स्वलक्षण है। वस्तुमें दो प्रकारका तत्त्व होता है-असाधारण और सामान्य । उनमेंसे जो असाधारण तत्त्व है वही स्वलक्षण है । स्वलक्षणको अन्य प्रकारसे भी समझाया गया है । जिस पदार्थके सन्निधान ( निकटता ) और असन्निधान ( दूरता )के द्वारा ज्ञानमें प्रतिभास भेद होता है, वह स्वलक्षण है । अर्थात् जो निकट होनेके कारण ज्ञानमें स्पष्ट प्रतिभासको करता है और दूर होनेके कारण अस्पष्ट प्रतिभासको करता है वह स्वलक्षण है। स्वलक्षणके प्रकरणमें यह जान लेना भी आवश्यक है कि प्रत्येक परमाणु सजातीय और विजातीयसे व्यावृत्त है, प्रत्येक परमाणुकी सत्ता पृथक् एवं स्वतंत्र है । एक परमाणुका सम्बन्ध दूसरे परमाणुके साथ नहीं हो सकता । एक परमाणुका सम्बन्ध दूसरे परमाणुके साथ यदि एक देशसे होता है तो परमाणुमें अंश मानना पड़ेंगे, किन्तु परमाणु निरंश होता है । और यदि सर्वदेशसे सम्बन्ध माना जाय तो दश परमाणुओंका पिण्ड भी अणुमात्र ही कहलायगा। इसप्रकार परमाणुओंमें सम्बन्धके अभावमें अवयवीका सद्भाव भी सिद्ध नहीं होता है। नैयायिकोंके द्वारा माने गये अवयवीका बौद्धोंने निराकरण किया है। अवयवोंसे भिन्न कोई अवयवी नहीं है। अवयवोंके समूहका नाम ही अवयवी है। सब परमाणु अत्यन्त सन्निकट हैं, उनमें कोई अन्तराल नहीं है । अतः सम्बन्धरहित परमाणुओंमें भी समुदायकी प्रतीति होने लगती है। १. स्वलक्षमित्यसाधारणं वस्तुरूपं देशकालाकारनियतम् । एतेनैतदुक्तं भवति घटादिरुदकाहरणसमर्थोऽर्थो देशकालाकारनियतः पुरः प्रकाशमानोऽनित्यत्वाद्यनेकधर्मोदासीनः प्रवृत्तिविषयो विजातीयसजातीयव्यावृत्तः स्वलक्षणम् । -तर्कभाषा पृ० ११ । २. स्वमसाधारणं लक्षणं तत्त्वं स्वलक्षणम् । वस्तुनो ह्यसाधारणं च तत्त्वमस्ति सामान्यं च -न्या०बि० टीका पृ० १५ । ३. यस्यार्थस्य सन्निधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत् स्वलक्षणम् । -न्या० बि० पृ० १६ । ४. षटकेन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता। षण्णां समानदेशत्वे पिण्डः स्यादणुमात्रकः ।। ५. भागा एव हि भासन्ते सन्निविष्टास्तथा तथा । तद्वान्नैव पुनः कश्चिन्निर्भागः सम्प्रतीयते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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