SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तमीमांसा [परिच्छेद–१ करने वाला हो। प्रमाणका लक्षण अविसंवादिता भी माना गया है । ज्ञानमें तथा वस्तुमें किसी प्रकारका विसंवाद नहीं होना चाहिए। प्रमाणको अविसंवादी होना आवश्यक है। अर्थात् ज्ञानने जिस वस्तुको जाना है उसको वही होना चाहिए, दूसरी नहीं। यदि ज्ञानने चाँदीको जाना है तो उसे चाँदी ही होना चाहिए, शीप नहीं । इसोका नाम अविसंवादिता है। ज्ञानको सम्यक्ता भी यही है। बौद्धदर्शनमें प्रमाण दो माने गए हैं--प्रत्यक्ष और अनुमान । जो ज्ञान कल्पनासे रहित और भ्रमसे रहित हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष कल्पनासे रहित है इस बातकी सिद्धि प्रत्यक्षसे ही होती हैं । नाम, जाति गुण, क्रिया और द्रव्यसे किसीको युक्त करना कल्पना है । शब्दसे सम्वन्ध रखनेवाला या शब्दसे सम्बन्धकी योग्यता रखने वाला जितना ज्ञान है वह सब कल्पना ज्ञान है । पहले और बादकी दो अवस्थाओंमें एकत्वका ज्ञान करनेवाली प्रतीति चाहे शब्दसे संयुक्त हो या अन्तर्जल्पाकार हो, कल्पना है। प्रत्यक्षको कल्पनासे रहित होना आवश्यक है। इसीप्रकार उसे भ्रमसे भी रहित होना चाहिए। प्रत्यक्षके चार भेद हैं-इन्द्रिय प्रत्यक्ष मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष । व्याप्तिज्ञानसे सम्बन्धित किसी धर्मके ज्ञानसे धर्मीके विषयमें जो परोक्ष ज्ञान होता है वह अनुमान है। धूमदर्शनसे पर्वतमें वहिका जो १. प्रमाणं सम्यग्ज्ञानमपूर्वगोचरम् ---तर्कभाषा पृ० १। २. अविसंवादकं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् -न्यायबिन्दु पृ० ४ । प्रमाणमविसंवादिज्ञानमर्थक्रियास्थितिः । अविसंवादनम् -~--प्रमाणवार्तिक २।। ३. तत्र कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् -न्यायबिन्दु पृ०८ प्रत्यक्ष कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम्। -प्रमाणसमुच्चय । ४, प्रत्यक्षं कल्पनापोडं प्रत्यक्षोणव सिद्धयति । प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः ।। -प्रमाणवा० ३१ । ५. नामजात्यादियोजना कल्पना। -प्रमाणस० । ६. अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना। -न्या० वि० पृ० १० । ७. पूर्वापरमनुसन्धाय शब्दसंयुक्ताकारा अन्तर्जल्पाकारा वा प्रतीतिः कल्पना । -तर्कभाषा पृ० ७। ८, या च सम्बन्धिनो धर्माद् भूतिमिणि जायते । . सानुमानं परोक्षाणामेकान्तेनैव साधनम् ॥ प्रमाणवा० ३।६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy