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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ जयन्तभट्टने न्यायमञ्जरीमें वेदकी पौरुषेयता सिद्ध करनेके लिए कुछ युक्तियाँ प्रस्तुत की हैं । वेद नित्य नहीं है किन्तु कार्य होनेसे अनित्य है। इस विषयमें मीमांसकोंकी धारणा नितान्त भिन्न है । मीमांसक ईश्वरकी सत्ता ही नहीं मानते । अतः उनके मतसे वेद अनादि, नित्य एवं अपौरुषेय है । शब्दमात्र नित्य है, शब्दकी उत्पत्ति और नाश नहीं होता है।
मुक्ति दुःखसे अत्यन्त विमोक्षको अपवर्ग कहते हैं। अत्यन्तका अभिप्राय वर्तमान जन्मका परिहार तथा आगामी जन्मके न होनेसे है । दुःखकी आत्यन्तिकी निवत्तिका उपाय निम्न प्रकार है-तत्त्वज्ञानके उत्पन्न होनेपर मिथ्याज्ञानका नाश हो जाता है और मिथ्याज्ञानके अभावमें क्रमशः दोष, प्रवृत्ति, जन्म और दुःखका नाश होनेपर अपवर्गकी प्राप्ति होती है । न्याय और वैशेषिक दर्शनमें मुक्तिके विषयमें एक विशेष प्रकारकी कल्पना की गयी है कि मुक्तिमें बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार इन आत्माके नौ विशेष गुणोंका पूर्ण अभाव हो जाता है । वेदान्तदर्शन मुक्तिमें आनन्दकी उपलब्धि मानता है लेकिन न्यायदर्शनके अनुसार वहाँ आनन्दका भी अभाव हो जाता है। श्री हर्षने नैषधचरितमें नैयायिक मुक्तिका जो उपहास किया है वह विद्वानोंके लिए विचारणीय है। श्रीहर्षने बतलाया है कि गौतमने बुद्धिमान् पुरुषोंके लिए ज्ञान, सुखादिसे रहित शिलारूप मुक्तिका उपदेश दिया है। अतः उनका गौतम यह नाम शब्दतः ही यथार्थ नहीं है किन्तु अर्थतः भी यथार्थ है। वह केवल गौ ( बैल ) न होकर गौतम ( अतिशयेन गौ:गौतमः ) अर्थात् विशिष्ट बैल हैं। इसी प्रकार वैष्णव दार्शनिकोंने भी वैशेषिक मुक्तिका उपाहास किया है ।
किसी वैष्णव दार्शनिकने कहा है कि मुझे शृगाल बनकर वृन्दावनके सरस निकुञ्जोंमें जीवन बिताना स्वीकार है लेकिन मैं सुखरहित वैशेषिक १. तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः।
-न्या० सू०१।१।२२ । २. दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापायेतदनन्तरापायादपवर्गः ।।
-न्या० सू० १।३१।१ । ३. मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमचे सचेतसाम । गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्थ तथैव सः ॥
-नैषधचरित १७।७५ ।
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