________________
१०
आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
वह इन्द्रियप्रत्यक्षका विषय है, जैसे घट । ऐसा कहनेपर दूसरा व्यक्ति उसका निग्रह करनेके लिए कहता है कि इन्द्रियप्रत्यक्ष तो सामान्य भी है किन्तु वह नित्य है । अत: शब्द भी नित्य प्राप्त होता है । तब वादी दृष्टान्तभूत घटक नित्यता स्वीकार कर लेता है । इस प्रकार दृष्टान्तभूत घटक नित्यता स्वीकार करनेपर वादीके पक्षकी हानि होनेसे उसके लिए यह विप्रतिपत्तिके कारण निग्रहस्थान होता है । अप्रतिपत्तिका उदाहरणवादी अनेक बार किसी विषय के कहनेपर यदि प्रतिवादी उस विषयको नहीं समझ सकने के कारण चुप रह जाता है तो यह प्रतिवादीके लिए प्रतिपत्ति कारण निग्रहस्थान होता है । विप्रतिपत्तिका अर्थ है विपरीतज्ञान और अप्रतिपत्तिका अर्थ है अज्ञान । निग्रहस्थानके २२ भेद हैंप्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासन्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, अपसिद्धान्त और हेत्वाभास ऊपर जो विप्रतिपत्तिसे निग्रहस्थानका उदाहरण दिया गया है वह प्रतिज्ञाहानिका उदाहरण है ।
प्रामाण्यवाद
न्याय मीमांसा के स्वतः प्रामाण्यवादका खंडन करता है और परतः प्रामाण्यवादको स्वीकार करता है । 'नैयायिकोंका कहना है कि यदि ज्ञानका प्रामाण्य स्वतः गृहीत हो तो यह ज्ञान प्रमाण है या नहीं, इस प्रकारका संशय ज्ञानकी प्रामाणिकताके विषय में उत्पन्न नहीं हो सकता प्रमाणकी प्रमाणताका ज्ञान उन्हीं कारणोंसे नहीं होता जिनसे प्रमाणकी उत्पत्ति होती है । किन्तु अर्थक्रिया आदि भिन्न कारणोंसे प्रमाणताका ज्ञान होता है । विपर्यय ज्ञानको नैयायिक अन्यथा ख्याति कहते हैं । शीपमें जो चाँदीका ज्ञान होता है उसमें इन्द्रिय दोष आदिके कारण चाँदीके गुण शीपमें मालूम पड़ने लगते हैं । यह अन्यथाख्याति है । वात्स्यायनने स्पष्ट लिखा है - तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति होती है, पदार्थ ज्योंका त्यों बना रहता है । अत: भ्रम या विपर्यय विषयीमूलक है, विषयमूलक नहीं ।
१. प्रमात्वं न स्वतो ग्राह्यं संशयानुपपत्तितः । - कारिकावली का० १३६ । २. तत्वज्ञानेन मिथ्योपलब्धिनिवर्त्यते नार्थः स्थाणुपुरुषसामान्यलक्षणः ।
- न्या० भा० ४।२३।५. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org