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________________ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ समानधर्मोंकी उपलब्धि होनेसे, यथा स्थाणु और पुरुषके समान धर्म ऊँचाई, स्थूलता आदिको देखनेवाला पुरुष जब उनके विशेष धर्मका निश्चय नहीं कर पाता है तब वहाँ संशय होता है। अनेकके धर्मकी उपलब्धि होनेसे यहाँ अनेकका तात्पर्य समान जातीय और असमान जातीय पदार्थसे है। यथा-रूपादि अन्य गण शब्दके समान जातीय हैं। तथा द्रव्य और कर्म शब्दके असमान जातीय हैं । अतः रूपादि गुण, द्रव्य और कर्म अनेक हैं। यहाँ धर्मसे तात्पर्य व्यावर्तक धर्मसे है। शब्दमें जो विभागजन्यत्व धर्म है वह अनेकका व्यावर्तक धर्म है। क्योंकि वह शब्दको रूपादि गुणोंसे तथा द्रव्य और कर्मसे पृथक् करता है। शब्द विभागजन्य होता है। शब्दकी यह ऐसी विशेषता है जो उसे अन्य गुणोंसे पृथक् करती है तथा द्रव्य और कर्मसे भी पृथक् करती है। शब्दको छोड़कर अन्य किसी गुणमें विभागजन्यता नहीं पायी जाती है। इसी प्रकार द्रव्य और कर्ममें भी विभागजन्यता नहीं पायी जाती है। अतः शब्दमें विभागजन्यताके कारण यह संशय होता है कि वह द्रव्य, गुण और कर्ममेसे क्या है। किसी विषयमें विवाद होनेसे, यथा कोई कहता है, 'आत्मा है' । दूसरा कहता है, 'आत्मा नहीं है' । यहाँ आत्माके विषयमें विवाद होनेसे संशय होता है। उपलब्धिकी व्यवस्था न होनेसे, यथाविद्यमान पदार्थकी उपलब्धि देखी जाती है जैसे तालाब आदिमें जलकी. और अविद्यमान पदार्थकी भी उपलब्धि देखी जाती है जैसे मरीचिकामें जलकी । अतः उपलब्धिकी व्यवस्था न होनेसे उपलब्ध पदार्थोंके विषयमें संशय होता है। अनुपलब्धिकी व्यवस्था न होनेसे, यथाविद्यमान पदार्थकी अनुपलब्धि देखी जाती है, जैसे पृथिवीके नीचे जल आदिकी । और अविद्यमान पदार्थकी भी अनुपलब्धि देखी जाती है, जैसे गगनकुसुमकी । अतः अनुपलब्धिकी व्यवस्था न होनेसे अनुपलब्ध पदार्थोके विषयमें संशय होता है। प्रयोजन-जिस अर्थके उद्देश्यसे कोई किसी कार्यमें प्रवृत्ति करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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