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________________ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ आप्तको नियमसे वीतरागी, सर्वज्ञ और आगमका उपदेष्टा होना ही चाहिए । इन तीन गुणोंके विना आप्तता नहीं हो सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य समन्तभद्रके समयमें बाह्य विभूति और चमत्कारोंको ही आप्तका सूचक माना जाने लगा था। महान् परीक्षक आचार्य समन्तभद्रको यह बात उचित प्रतीत नहीं हुई। क्योंकि इससे साधारण जनता आप्तके असली गुणोंको भूलकर बाह्य विभूति और चमत्कारोंको ही आप्तत्वका चिह्न समझने लगी थी। इसी कारण उन्होंने 'आप्तमीमांसा' नामक ग्रन्थकी रचना की, जिसमें यह सिद्ध किया कि देवोंका आगमन, आकाश में गमन आदिके द्वारा किसीको आप्त नहीं माना जा सकता । आप्तकी परीक्षा करनेवाले समन्तभद्राचार्यमें आप्तविषयक श्रद्धा और गुणज्ञता ये दो गुण स्वयंसिद्ध प्रतीत होते है। क्योंकि इन गुणोंके अभावमें वे आप्तकी परीक्षा करने में प्रवृत्त नहीं हो सकते थे। __ भगवान् आप्त स्वामी समन्तभद्राचार्यसे पूछते हैं कि मैं देवागम आदि विभूतियोंके कारण क्यों स्तुत्य नहीं हूँ ? इसके उत्तरमें वे कहते हैंदेवागमनभोयानचामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ हे भगवन् ! देवोंका आगमन आदि, आकाशमें गमन आदि और चामर आदि विभूतियाँ आपमें पायी जाती हैं, इस कारण आप हमारे स्तुति करने योग्य नहीं हो सकते हैं। क्योंकि ये विभूतियाँ तो मायावी पुरुषोंमें भी देखी जाती हैं। - संसारमें दो प्रकारके पुरुष दृष्टिगोचर होते हैं-आज्ञाप्रधान और परीक्षाप्रधान । उनमेंसे जो आज्ञाप्रधान पुरुष हैं वे देवागमन आदिको आप्तके महत्त्वका सूचक मान सकते हैं। किन्तु समन्तभद्र सरीखे परीक्षाप्रधान पुरुष देवागमन आदिको आप्तके महत्त्वका सूचक कदापि नहीं मान सकते। क्योंकि देवागमन आदि विभूतियाँ मायावी मस्करी आदि पुरुषोंमें भी पायी जाती हैं। इन्द्रजालवाले पुरुष भी अपनी मायाके द्वारा देवागमन आदि विभूतियोंका प्रदर्शन करते हैं । अतः यदि देवागमन आदि चिह्नोंके द्वारा आप्तको स्तुत्य मानें तो मायावी मस्करी आदिको भी स्तुत्य मानना चाहिये। यहाँ यह दृष्टव्य है कि देवागम, नभोयान आदि चिह्नोंके द्वारा आप्तको स्तुत्य मानना आगमके आश्रित है। तथा इस स्तवनका हेतु देवागमन आदि विभूति भी आगमाश्रित है । क्योंकि हमने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org'
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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