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________________ आप्तमीमांसा-तत्वदीपिका प्रथम परिच्छेद अकलंक देवने आप्त'का अर्थ किया है कि जो जिस विषयमें अविसंवादक है वह उस विषयमें आप्त है। आप्तताके लिए तद्विषयक ज्ञान और उस विषयमें अविसंवादकता या अवंचकता अनिवार्य तत्त्व हैं। आप्तको वीतरागी और पूर्णज्ञानी होना आवश्यक है। ऐसा होनेसे उसके कथनमें न तो राग-द्वेषजन्य असत्यता रहती है और न अज्ञानजन्य असत्यता रहती है। जैनपरम्परामें धर्मतीर्थका प्रवर्तन तीर्थंकर करते हैं । धर्मरूपी तीर्थका प्रवर्तन करनेके कारण ही वे तीर्थंकर कहलाते हैं। वे अपनी साधनासे पूर्ण वीतरागता और सर्वज्ञता प्राप्त कर अतीन्द्रिय पदार्थोंके भी साक्षात् दृष्टा हो जाते हैं। इन्हें ही आप्त, अर्हन् इत्यादि विशेषणोंसे सम्बोधित किया जाता है। ऋषभ, महावीर आदिकी तरह सुगत, कपिल आदि भी तीर्थंकर या आप्त कहलाते थे। अत: परीक्षाप्रधानी और महान् दार्शनिक आचार्य समन्तभद्रने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थमें आप्तकी मीमांसा करके यह सिद्ध किया है कि जो निर्दोष हो तथा जिसका वचन यक्ति और आगमसे अविरुद्ध हो वही आप्त है। आचार्य हेमचन्द्रके अनुसार मीमांसा' शब्द आदरणीय विचारका वाचक है। आप्तमीमांसामें कपिल, कणाद, बृहस्पति, बुद्ध आदि सर्वथैकान्तवादी आप्तोंके मतोंकी समीक्षा करके अनेकान्तवादी आप्त ( अर्हत् ) द्वारा प्रतिपादित स्याद्वादन्यायकी प्रतिष्ठा की गई है। आगमके प्रकरणमें स्वामी समन्तभद्रने आप्तका लक्षण इस प्रकार किया है : आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ -रत्लक० श्रवका० ५ १. यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः, ततः परोऽनाप्तः । तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः, तदर्थज्ञानात् । --अष्टश०, अष्टसह० पृ० २३६ । २. पूजितविचारवचनश्च मीमांसाशब्दः । -प्रमाणमी० पृ० २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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