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________________ प्रकाशकीय श्री प्रो० उदयचन्द्रजी सितम्बर '७४ के द्वितीय सप्ताहमें अपनी रचना 'आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका' की पाण्डुलिपि लेकर मेरे पास आये और कहने लगे कि वर्णी-शताब्दीके अवसर पर इसका प्रकाशन हो जाय तो उत्तम रहेगा। मैं इनकी योग्यता तथा बुद्धिमत्तासे पहलेसे ही परिचित हूँ। आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिकाकी पाण्डुलिपिको देखकर यह अनुभव हुआ कि यह कृति प्रकाशनके सर्वथा योग्य है । अतः मैंने श्री वर्णी-संस्थान के अध्यक्षकी अनुमतिपूर्वक वर्णी-संस्थान द्वारा इसके प्रकाशनको स्वीकार कर लिया। वर्णी-संस्थान एक नूतन संस्था है और अभी इसके पास प्रकाशनके लिए कोई पृथक् कोष नहीं है। प्राय: शोध-छात्रवृत्ति कोष ही इसके पास है। अत: मैंने यह निश्चय किया कि छात्र-वृत्ति कोषमेंसे धन खर्च न करके इसके प्रकाशनके लिए पृथक्से धनकी व्यवस्था होनी चाहिए। और इसी निश्चयके अनुसार इसका प्रकाशन किया गया है। यह कृति कैसी है इसका विशेष निर्णय तो पाठक ही करेंगे, किन्तु इतना कह देना आवश्यक है कि इसके लिखने में लेखकने विशेष श्रम किया है। जो अध्येता विद्वान् जैनदर्शनके सिद्धान्तोंको समझना चाहते हैं उन्हें इसके अध्ययनसे अवश्य ही लाभ होगा। जैन विद्वानों तथा जिज्ञासुओंको भी इसके अध्ययनसे अन्य दर्शनोंके साथ जैनदर्शनके सिद्धान्तोंको समझने में सरलता होगी, ऐसा मुझे विश्वास है। यह कृति स्वतः इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इसके महत्त्वको ध्यानमें रखकर ही जैनदर्शनके प्रकाण्ड विद्वान् पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने इसका प्राक्कथन लिखा है । तथा बौद्धदर्शन और पालिके ख्यातिप्राप्त विद्वान् भिक्षु जगदीश जी काश्यपने इसका मूल्यांकन लिखा है। साथ ही पाश्चात्य दर्शनके विद्वान् डॉ० रमाकान्त जी त्रिपाठीने अंग्रेजीमें भूमिका, भारतीय दर्शनके विद्वान् पं० केदारनाथजी त्रिपाठीने संस्कृतमें 'शुभाशंसनम्' और बौद्धदर्शनके विद्वान् पं० जगन्नाथजी उपाध्यायने पुरोवाक् लिखा है। तथा श्री बाबूलालजी फागुल्लने अल्प समयमें ही इसका आकर्षक मुद्रण करके इसके शीघ्र प्रकाशनमें पूर्ण योग दिया है। __ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका ग्रन्थका प्रकाशन वर्णी संस्थानसे हो जाय । इस आशयका प्रस्ताव मेरे सामने उपस्थित होने पर मैंने तत्काल समाज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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