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सूत्र संख्या
[ ७ ]
विषय
लिङ्ग-पम्बन्धी आर्य-अनार्य व्यवहार और तद्विषयक चतुर्भङ्गी
श्रार्य-क्षेत्र की सीमा
प्रार्य क्षेत्र में विहार करने के हेतु
अनायंदेश - गमनविषयक चतुगुरु प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में शङ्का समाधान
आर्य-क्षेत्र से बाहर विहार करने से लगने वाले दोष और इस सम्बन्ध में स्कन्दकाचार्य का दृष्टान्त
ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि को सुरक्षा एवं अभिवृद्धि के लिए प्रार्य क्षेत्र की सीमा ( गा० ५७३३ ) से बाहर विहार करने की अनुज्ञा और इस सम्बन्ध में सम्प्रति राजो के द्वारा प्रत्यंत देशों में किये गये धर्म प्रचार का उल्लेख
२८ - ३३ जुगुप्सित कुलों में प्रशनादि, वस्त्रादि, वसति तथा स्वाध्याय का निषेध
जुगुप्सा के प्रकार, जुगुप्सित कुलों में प्रशन-वस्त्रादिग्रहण एवं स्वाध्याय से होने वाले दोष प्रपवाद और तत्नम्बन्धी
यतना
३४-३६ पृथ्वी, संस्तारक और आकाश (ऊंचाई) पर प्रशनादि खने का निषेध
पृथ्वी, संस्तारक प्रादि पर प्रशनादि-निक्षेप से होने वाले दोष, अपवाद और यतना
३७-३८ अन्यतीर्थी तथा गृहस्थों के साथ एक पात्र तथा एक पंक्ति में भोजन करने का निषेध
अन्यतीर्थी तथा गृहस्थों के भेदानुभेद, उनके साथ भोजन करने से दोप, प्रायश्चित्त और अपवाद
३६ ग्राचार्य तथा उपाध्याय के शय्या संस्तारक को पैर से संघट्टित कर देने पर बिना क्षमा माँगे चले जाने का निषेध
४० प्रमाणातिरिक्त और गणनातिरिक्त उपधि रखने का निध
उपधि के भेद-प्रभेद
उपधि के प्रमाणादि की सूचक द्वार-गाथा
१. प्रमाण-द्वार
जिन-कल्पिक प्रौर स्थविर - कल्लिक की पात्र सम्बन्धित उपधि
की संख्या
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गाथाङ्क
५७३२
५७३३ ५७३४-५७३८
५७३६
५७४०-५७४३
५७४४-२७५८
५७५६-५७६४
५७६५-५७७०
५७७१-५७८०
५७८१-५७८४
५७८६
५७८७-५८१२
५७८७
५७८५
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पृष्ठाङ्क
१२५
१२५
१२५-१२६
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१२७-१२८
१२८-१३१
१३१-१३३
१३२-१३३
१३३–१३४
१३३-१३४
१३४-१३६
१३४-१३६
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१३८-१४२
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