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उत्सर्ग और अपवाद
अपवाद का अवलंबन करने से पहले कई शर्तों को पूरा करना पड़ता है; अन्यथा अपवादमार्ग पतन का मावन जाता है। यही कारण है कि स्पष्ट रूप से प्रतिसेवना के दो भेद बताये गये हैं-अकारण अपवाद का सेवन 'दर्प' प्रति सेवना है और सकारण पनि सेवना 'कल्प' है। संयमी पुरुष के लिये मोक्ष मार्ग पर चलना, यह मुख्य है । मोक्ष मार्ग में ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की साधना होती है। प्राचार का पालन करना चारित्र है; किन्तु उक्त चारित्र के. कारण यदि दर्शन और ज्ञान की हानि होती हो, तो वह चारित्र, चारित्र नहीं रहता। अतएव ज्ञान-दर्शन की पुष्टि में बाधक होने वाला प्राचरण चारित्र की कोटी में नहीं आता। यही कारण है कि ज्ञान और दर्शन के कारण पाचरण के नियमों में अर्थात् चारित्र में अपवाद करना पड़ता है। उक्त अपवादों का सेवन 'कल्पप्रतिसेवना' के अन्तर्गत इस लिये हो जाता है कि साधक अपने ध्येय से च्युत नहीं होता। अर्थात् अपवाद सेवन के कारणों में 'ज्ञान' और 'दर्शन' ये दो मुख्य हैं। यदि अपवाद सेवन की स्थिति में इन दोनों में से कोई भी कारण उपस्थित न हो, तो वह प्रतिसेवना अकारण होने से 'दर्प' के अन्तर्गत होती है। दर्प का परित्याग करके 'कल्प' का प्राश्रय लेना ही साधक को उचित है । अतएव दर्श को निषिद्ध माना गया है । ज्ञान
और दर्शन इन दो कारणों से प्रतिसेवना हो तो कल्प है-ऐसा मानने पर प्रश्न होता है कि तब दुर्भिक्ष ग्रादि अन्य अनेक प्रकार के कारणों की जो ! आती है ; उसका समाधान क्या है ? मुख्य कारण तो ज्ञान-दर्शन ही हैं, किन्तु उनके अतिरिक्त जो अन्य कारणों की चर्चा प्राती है, उसका अर्थ यह है कि साक्षात् ज्ञान दर्शन की हानि होने पर जिस प्रकार अपवाद मार्ग का आश्रय लिया जाता है, उसी प्रकार यदि परंपरा से भी ज्ञान-दर्शन की हानि होती हो तब भी अपवाद का आश्रय लेता आवश्यक हो जाता है। दुर्भिक्ष में उत्सर्ग नियमों का पालन करते हुए ग्राहारादि आवश्यक सामग्री जुटाना संभव नहीं रहता। और आहार के बिना शरीर का स्वस्थ रहना संभव नहीं। शरीर के अस्वस्थ होने पर अवश्य ही स्वाध्याय की हानि होगी, और इस प्रकार अन्ततः ज्ञान-दर्शन की हानि होगी ही। यह ठीक है कि दुर्भिक्ष से साक्षात् ज्ञान-हानि नहीं होती, किन्तु परंपरा से तो होती है। अतएव उसे भी अपवाद मार्ग के कारपी में स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार अन्य कारणों का भी ज्ञान-दर्शन के साथ परंपरा सम्बन्ध है।
अथवा प्रतिसेवना का विभाजन एक अन्य प्रकार से भी किया गया है-- (१) दर्प प्रति-सेवना. (२) कल्पप्रति सेवना, (३) प्रमादप्रति सेवना और (४) अप्रमादप्रति सेवना। किन्तु उक्त चारों को पुनः दो में ही समाविष्ट कर दिया गया है, क्योंकि प्रमाद दर्प है और अप्रमाद
१. नि० गा० ८८ । और उसकी चूणि । गा० १४४, ३६३, ४६३ । २. नि० गा० १७५, १८८, १६२, २२०, २२१, ४८४,-५, २४४, २५३, ३२१, ३४२, ४१६,
३६१, ३६४, ४२५, ४५३, ४५८, ४८८१ इत्यादि । ३. नि० गा०६०।
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