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________________ TE निशीथ : एक अध्ययन कल्प । अर्थात् जो प्राचरण प्रमाद-पूर्वक किया जाता है, वह दर्प प्रतिसेवता है और जो अप्रमादपूर्वक किया जाता है, वह कल प्रति सेवना है। जैन प्राचार के मूल में अहिंसा है । एक प्रकार से अहिंसा का ही विस्तार सत्य आदि हैं । अतएव पाचरण का सम्यक्त्व इसी में है कि वह अहिंसक हो । और वह पाचरण दुश्चरित कहा जाएगा, जो हिंसक हो। हिंसा-अहिंसा की सूक्ष्म चर्चा का सार यही है कि प्रमाद ही हिमा है और अप्रमाद ही अहिमा२ प्रतएव प्रस्तुत में प्रमाद प्रति सेवना को 'दर्प' कहा गया ग्रोर अप्रमाद प्रति सेवना को 'कल्प' । संयमी साधक को अप्रमादी रह कर आचरण करना चाहिए, कभी भी प्रमादी जीवन नहीं बिताना चाहिए, क्योंकि उसमें हिंसा है और साधक को प्रतिज्ञा अहिंसक जीवन व्यतीत करने की होती हैं। __ अप्रमाद प्रति सेवना के भी दो भेद किये गये हैं-प्रनाभोग और सहसाकार । अप्रमादी होकर भी यदि कभी ईर्या प्रादि समिति में विस्मृति आदि किसी कारण से अल्पकाल के लिये उपयोग न रहे, तो वह अनाभोग कहा जाता है। इसमें, यद्यपि प्राणातिपात नहीं है, मात्र विस्मृति है ; तथापि यह प्रतिसेवना के अन्तर्गत तो है ही" । प्रवृत्ति हो जाने के बाद यदि पता चल जाए कि हिंसा की संभावना है, किन्तु परिस्थितिवश इच्छा रहते हुए भी प्राणवध से बचना संभव न हो, तो उस प्रतिसेवना को सहसाकार कहते हैं । कल्पना कीजिए कि संयमी उपयोगपूर्वक चल रहा है। मार्ग में कहीं सूक्ष्मता आदि के कारण पहले तो जीव दीखा नहीं, किन्तु ज्योंही चलने के लिये पैर उठाया कि सहसा जीव दिखाई दिया और बचाने का प्रयत्न भी किया, तथापि न संभल सकने के कारण जीव के ऊार पैर पड़ ही गया और वह मर भी गया, तो यह प्रतिसेवना सहसाकार प्रतिसेवना है। अनाभोग और सहसाकार प्रतिसेवना में प्राणिबध होते हुए भी बंध = कर्म बंध नहीं माना गया है । क्योंकि प्रतिसेवक समित है, अप्रमादी है, और यतनाशील है (नि० गा० १०३) । यसनाशील पुरुष की कल्पिका सेवना, न कर्मोदयजन्य है और न कर्मजनक ; प्रत्युत कर्मक्षयकारी है। इसके विपरीत दर्प प्रतिसेवना कर्मबन्धजनक है ( नि० गा० ६३०३-८)। यतना की अह भी व्याख्या है कि अशठ पुरुष का जो भी रागद्वेष रहित व्यापार है, वह सब यतना है । इसके विपरीत रागद्वेषानुगत व्यापार अयतना है। (नि० गा० ६६६६) १. नि. गा०६१ २. नि० गा० ६२ । ३. नि० गा० ६०, ६५ । ४. नि. गा० ६६ । ५. नि० चू० गा० ६६ । नि०मा०६७ ७. नि० गा०६८ से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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