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________________ ५४ निशीथ : एक अध्ययन यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि यह अपवाद मार्ग केवल स्थविरकल्प में हो उचित समझा गया है। जिनकल्प में तो साधक केवल प्रौत्सर्गिक मार्ग पर ही चलते हैं । यह भी एक कारण है कि प्रस्तुत निशीथ सूत्र को 'कल्प' न कहकर 'प्रकल्प' कहा गया है । क्योंकि उममें उत्सर्ग-कला का नहीं ; किन्तु स्थविर-कल्पका वर्णन है। स्थविर-कल्प का ही दूसरा नाम 'प्रकल्प हैं। और 'कल्प' जिनकल्प को कहते हैं। प्रतिषेध के लिये उत्सर्ग शब्द का प्रयोग है और 'अनुज्ञा के लिए अपवाद का । इससे फलित है कि उत्सर्ग प्रतिषेध है, और अपवाद विधि है । संयमी पुरुष के लिये जितने भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये हैं, वे, सभी 'प्रतिषेध' के अन्तर्गत पाते हैं । और जब परिस्थिति-विशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों को करने की 'अनुज्ञा' दी जाती है, तब वे हो निषिद्ध कर्म 'विधि' बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता हैं ; किन्तु प्रतिषेध को विधि में परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य और परीक्षण करना, साधारण साधक के लिये संभव नहीं है। अतएव ये 'अपवाद' 'अनुज्ञा' या 'विधि' सब किसी को नहीं बताये जाते। यही कारण है कि 'अपवाद' का दूसरा नाम 'रहस्य' (नि० चू० गा० ४६५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि जिस प्रकार 'प्रतिषेध' का पालन करने से आचरण विशुद्ध. माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद मार्ग पर चलने पर भी प्राचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। यदि ऐसा न माना जाता तब तो एक मात्र उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना अनिवार्य हो जाता; फलस्वरूप अपवाद मार्ग का अवलंबन करने के लिए कोई भी किसी भी परिस्थिति में तैयार ही न होता। परिणाम यह होता कि साधना मार्ग में केवल जिनकल्प को ही मानकर चलना पड़ता। किन्तु जब से साधकों के संघ एवं गच्छ बनने लगे, तब से केवल प्रौत्सर्गिक मार्ग अर्थात् जिनकल्प संभव नहीं रहा । अतएव स्थविरकल्प में यह अनिवार्य हो गया कि जितना 'प्रतिषेध' का पालन आवश्यक है, उतना हो प्रावश्यक 'अनुज्ञा' का आचरण भी है। बल्कि परिस्थितिविशेष में 'अनुज्ञा' के अनुसार प्राचरण नहीं करने पर प्रायश्चित्त का भी विधान करना पड़ा है । जिस प्रकार 'प्रतिषेध' का भंग करने पर प्रायश्चित्त है उसी प्रकार अपवाद का आचरण नहीं करने पर भी प्रायश्चित्त है । अर्थात् 'प्रतिषेध' और 'अनुज्ञा' उत्सर्ग और अपवाद-दोनों ही समबल माने गये । दोनों में ही विशुद्धि है। किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्सर्ग राजमार्ग है, जिसका अवलंबन साधक के लिये सहन है ; किन्तु अपवाद, यद्यपि आचरण में सरल है, तथापि सहज नहीं है। १. स्थविरकल्प में स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं । जिनकल्प में केवल पुरुष । नि० गा० ८७ । २. नि. गा० ६६९८ की उत्थान चूणि। ३. नि० चू० पृ. ३८ गा० ७७ के उत्तराध की चूणि । पौर गा० ८१, ८२ की चूणि । ४. नि० चू० गा० ३६४ । ५. नि. गा० ५२४५ ॥ ६. नि चू० पृ० ३, गा० २८७, १०२२, १०६८, ४१०३ । ७. नि० गा० २३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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