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निशीथ : एक अध्ययन प्रतिष्ठा तथा रक्षा का प्रश्न भी कुछ कम महत्त्व का नहीं था-इन दो सीमा-रेखामों के बीच तत्कालीन मन. स्थिति दोलायमान थी। टीकोपटीकानों का तटस्थ अध्ययन इस बात की स्पष्ट साक्षी दे . है कि बन्धनों को शिथिल किया गया और संघ की प्रतिष्ठा की चेष्टा की गई । यह चेष्टा सर्वथा सफल हुई, यह नहीं कहा जा सकता । कुछ साधुनों ने अपने शिथिलाचार का पोषण संघ प्रतिष्ठा के नाम से भी करना शुरू किया, जिसके फल स्वरूप अन्ततः चैत्यवास, यतिसमाज ग्रादि के रूप में समय-समय पर शिथिलाचार को प्रश्रय मिलता चला गया। संघहित की दृष्टि से स्वीकृत किया गया शिथिलाचार, यदि साधक में व्यक्तिगत विवेक की मात्रा तीव्र हो और पाचरण के नियमों के प्रति बलवती निष्ठा हो, तव तो जीवन की उन्नति में बाधक नहीं बनता। किन्तु इसके विपरीत ज्योंही कुछ हया कि चारित्र का केवल बाह्य रूप ही रह जाता है, यात्मा लुम हो जाती है। धीरे-धीरे ग्राचरण में उत्सर्ग का स्थान अपवाद ही ले लेता है और ग्राचरण की मूल भावना शिथिल हो जाती है। जैन संघ के प्राचार सम्बन्धी कितने ही ग्रौत्सर्गिक नियमों का स्थान आधुनिक काल में अपवादों ने ले लिया है और यदि कहीं अपवादा का प्राथय नहीं भी लिया गया, तो भी यह तो देखा ही जाता है कि उत्सर्ग की प्रात्मा प्रायः लुम हो गई है। उदाहरण के तौर पर हम कह सकते हैं कि श्वेताम्बर संप्रदाय में वन स्वीकार का अपवाद मार्ग ही उत्सर्ग हो गया है ; तो दूसरी ओर दिगम्बरों में अचेलता का उत्सर्ग तात्पर्य-शून्य केवल परंपरा का पालन मात्र रह गया है। मयूरपिच्छ, जो गच्छवासियों के लिये प्रापवादिक है (नि० गा० ५७२१); वह आज दिगम्बरों में प्रौत्सर्गिक है । वस्तुतः सूत्र और टीकामों में प्रति-पादित यह उत्सर्ग और अपवाद मार्ग जिस ध्येय को सिद्ध करने के लिये था, वह ध्येय तो साधक के विवेक से ही सिद्ध हो सकता है। विवेकशून्य पाचरण या तो शिथिलाचार होता है, या केवल अर्थशून्य आडंबर । प्राचीन प्राचार्य उक्त दोनों से बचने के, देश कालानुरूप मार्ग दिखा रहे हैं। किन्तु फिर भी यह स्पष्टोक्ति स्वीकार करनी ही पड़ती है कि प्राचीन ग्रन्थों में इस बात के भी स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं, जो यह सिद्ध कर रहे हैं कि वे प्राचीन प्राचार्य भी सही राह दिखाने में सर्वथा समर्थ नहीं हो सके । संघ-हित को यहाँ तक वढ़ावा दिया गया कि व्यक्तिगत आचरण का कोई महत्त्व न हो, ऐसी धारणा लोगों में बद्धमूल हो गई । यह ठीक है कि संघ का महत्त्व बहुत बड़ा है, किन्तु उसकी भी एक मर्यादा होनी ही चाहिए। अन्यथा एक बार आचरण का बाँध शिथिल हुप्रा नहीं कि वह मनुष्य को दुराचरण के गड्ढे में फिर कहाँ तक और कितनी दूर तक ढकेल देगा, यह नहीं कहा जा सकता। निशीथ के चूर्णि-पर्यंत साहित्य का अध्ययन करने पर बार-बार यह विचार उठता है कि संघ-प्रतिष्ठा की झूठी धुन में कभी-कभी सर्वथा अनुचित मार्ग का अवलम्बन लेने की आज्ञा भी दी गई है, जिसका समर्थन आजका प्रबुद्ध मानव किसी भी प्रकार से नहीं कर सकता। यह कह कर भी नहीं कि उस काल में वही उचित था। कुछ बातें तो ऐसी हैं, जो सदा सर्बत्र अनुचित ही कही जायंगी। ऐसी बातों का आचरण भले ही किसी पुस्तक-विशेष में विहित भी कर दिया हो, तथापि वे सदैव त्याज्य ही हैं । वस्तुतः इस प्रकार के विधान कर्तामों का विवेक कितना जागृत था, यह भी एक प्रश्न है। अतएव इन टीकाकारों ने जो कुछ लिखा है वह सब उचित ही है, यह कहने का साहस नहीं होता। मेरी उक्त विचारणा के समर्थन में यहाँ कुछ उदाहरण दिये जायँगे: जिन पर विद्वद्वगं को ध्यान देना चाहिये और साधकों को भी ।
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