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विषय-प्रवेश :
प्रस्तुत विषय-प्रवेश निशीथ सूत्र, भाष्य और चूर्णि को एक प्रखण्ड ग्रन्थ मान कर ही लिखा जा रहा है, जिससे कि एक ही विषय-वस्तु की बार-बार पुनरावृत्ति न करनी पड़े । श्रावश्यकता होने पर भाष्य चूर्णिका पृथक् निर्देश भी किया जायगा ; श्रन्यथा केवल 'निशीथ' शब्द का ही प्रयोग होता रहेगा । निशीथ २० उद्देश में विभक्त है और उसमें चर्चित विषयों का विस्तृत विषयानुक्रम चारों भागों के प्रारम्भ में दिया ही गया है । अतएव उसकी पुनरावृत्ति भी यहाँ नहीं करनी है । केवल कुछ विचारणीय बातों का निर्देश करना ही प्रस्तुत में प्रभीष्ट है । तथा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और भाषाकीय सामग्री की ओर, जो इस ग्रन्थ में सर्वत्र बिखरी पड़ी है, विद्वानों का ध्यान प्राकर्षित करने की दिशा में ही प्रस्तुत प्रयास है । ग्रन्थ की महत्ता एवं गम्भीरता को देखते हुए, तथा समय की अल्पता एवं अपनी बहुविध कार्यव्यग्रता को ध्यान में रखते हुए यद्यपि सफलता संदिग्ध है, तथापि इस दिशामें यत्किचित् दिग्दर्शन मात्र भी हो सका, तो मेरा यह तुच्छ प्रयास सफल समझा जाएगा ।
१.
आचारांग में निर्ग्रन्थ और निग्रन्थी संघ के कर्तव्य और कर्तव्य के मौलिक उपदेशों का संकलन हो गया था । किन्तु जैसे-जैसे संघ का विस्तार होता गया और देश, काल, अवस्था प्रादि परिवर्तित होते गये, उत्सर्ग मार्ग पर चलना कठिन होता गया । अस्तु ऐसी स्थिति में आचारांग की ही निशीथ नामक चूला में, उन ग्राचार नियमों के विषय में जो वितथकारी के लिये प्रायश्चित्त बताये गये थे', क्या उन प्रायश्चित्तों को केवल सूत्रों का शब्दार्थं करके ही दिया-लिया जाय, या उसमें कुछ नवीन विचारणा को भी अवकाश है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें मूल निशीथ सूत्र से तो नहीं मिलता; किन्तु दीर्घकाल के विस्तार में यथाप्रसंग जो अनेकानेक विचारणा और निश्चय होते रहे हैं उन सब का दर्शन हमें नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि में होता है । स्पष्ट है कि जिन अपवादों का मूल में कोई निर्देश नहीं, उन ग्रपवादों को भी नियुक्ति आदि में स्थान मिला है - यह वस्तु पद-पद पर स्पष्ट होती है । प्रतिसेवना के दो भेद दर्प और कल्प के मूल में भी मानवीय दुर्बलता ने उतना काम नहीं किया, जितना कि साधकों के दीर्घ कालीन अनुभव ने । साधक अपने साध्य की सिद्धि के हेतु आज्ञा का शब्दशः पालन करने को उद्यत था, किन्तु तथानुरूप शब्दशः पालन करने पर जब केवल अपना ही नहीं, जैन शासन का भी ग्रहित होने की संभावनाएँ देखने में आई तो शब्दों से ऊपर उठकर तात्पर्यार्थ पर जाना पड़ा और फलस्वरूप नाना प्रकार के अपवादों की सृष्टि हुई। कई बार उन अपवादों के प्रकार, उनका समर्थन और अवलम्बन की प्रक्रिया का वर्णन पढ़कर ऐसा लगने लगता है कि आदर्श मार्ग से किस सीमा तक संघ का पतन हम उन प्रक्रियाओं का अवलम्बन करने वालों की मनः स्थिति की कहना पड़ता है कि वे अपने ही द्वारा स्वीकृत नियमोपनियमों के और उन बन्धनों को किसी प्रकार भी शिथिल न करने की निष्ठा थी, तो दूसरी ओर संघ की
हो सकता है ? किन्तु जबओर देखते हैं, तो इतना ही बंधनों से अभिभूत थे। एक
२.
विषय प्रवेश :
गा० ७१
गा० ७४
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