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________________ निशीथ भाष्य और उसके कर्ता : की ओर संकेत करते हैं। यदि सिद्धसेन व्यवहार-भाष्य के कर्ता माने जायं तो इस प्रमाण के आधार से उन्हें जिनभद्र से पूर्व माना जा सकता है, पश्चात्कालीन या उनके शिष्प रूप तो नहीं माना जा सकता। अस्तु सिद्धसेन जिनभद्र के शिष्य कैसे हुए ! यह प्रश्न यहां सहज ही उपस्थित हो सकता है। किन्तु इसका स्पष्टीकरण यह किया जा सकता है कि स्वयं बृहत्कल्प और निशीथ भाष्य में विशेषावश्यक भाष्य की अनेक गाथाएँ उद्धृत हैं। देखिए, निशीथ गा. ४८२३, ४८२४, ४८२५ विशेषावश्यक को क्रमश: गा० १४१, १४२, १४३ हैं। विशेषावश्यक की गा० १४१ ---१४२ बृहत्कल्प में भी है-गा० ६६४, ६६५ । हां तो जीतकल्प चूणि की प्रशस्ति के आधार पर यदि सिद्धसेन को जिन भद्र का शिष्य माना जाए तब तो जिनभद्र के उक्त गाथागत 'ववहार' शब्द का अर्थ 'व्यवहारभाष्य' न लेकर 'व्यवहार नियुक्ति' लेना होगा। जिनभद्र ने केवल 'ववहार' शब्द का ही प्रयोग किया है, 'भाष्य' का नहीं । और बृहत्कल्प आदि के समान व्यवहार भाष्य में भी व्यवहार नियुक्ति और भाष्य दोनों एक ग्रन्थरूपेण संमिलित हो गए है, अतएव चर्चास्पद गाथा को एकान्त भाष्य की ही मानने में कोई प्रमाण नहीं है। अथवा कुछ देर के लिए यदि यही मान लिया जाए कि जिनभद्र को भाष्य हो अभिप्रेत है, नियुक्ति नहीं; तब भी प्रस्तुत असंगति का निवारण यों हो सकता है कि सिद्ध सेन को जिनभद्र का साक्षात् शिष्य न मानकर उनका समकालीन ही माना जाय । ऐसी स्थिति में सिद्धसेन के व्यवहार भाष्य को जिनभद्र देख सकें, तो यह असंभव नहीं । ___ यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैंने ऊपर में विशेषावश्यक भाष्य की जिन गाथानों को निशीथ भाष्य में उद्धृत होने की बात कही है. उन गाथानों के पूर्व में आने वाली विशेषावश्यक भाष्य की गा० १४० के अन्त में 'जश्रो सुएऽभिहिय' ये शब्द हैं। इसका अर्थ कोई यह कर सकता है कि गा० १४१ को विशेषावश्यक के कर्ता उद्धृत कर रहे हैं । किन्तु 'गा० १४१ का वक्तव्यांश श्रुत में कहा गया है, न कि स्वयं वह गाथा'-ऐसा मान कर ही मैंने प्रस्तुत में १४१, १४२, १४३ गाथाओं को विशेषावश्यक से निशीथ में उद्धृत माना है। ऐसी स्थिति में जिनभद्र और भाष्यकार सिद्धसेन का पौर्वापर्य अंतिम रूप में निश्चित हो गया है, यह नहीं कहा जा सकता। मात्र संभावना ही की जा सकती है । उक्त प्रश्न को अभी विचार-कोटि में ही रखा जाना, इसलिरे भी आवश्यक है कि जिनभद्र के जीत कल्प भाष्य और सिद्ध सेन के निशीथभाष्य तथा व्यवहार भाष्य की संल्लेखना-विषयक अधिकांश गाथाएँ एक जैसी ही हैं । तुलना के लिये, देखिए-निशीथ गा० ३८१४ से, व्यवहार भाष्य उ० १०, गा० ४०० से और जीत कल्प भाष्य को गा० ३२६ से । ये गाथाएँ किसी एकने अपने ग्रन्थ में दूसरे से ली हैं या दोनों ने ही किसी तीसरे से ? यह प्रश्न विचारणीय है। भाष्य कार ने किस देश में रहकर भाष्य लिखा ? इस प्रश्न का उत्तर हमें गा० २९२७ से मिल सकता है। उसमें 'चक्के धुभाइया' शब्द है। चूणिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि उत्तरापथ में धर्मचक्र है, मथुरा में देवनिर्मित स्तूप है, कोसल में जीवंत प्रतिमा हैं, अथवा तीर्थकारों की जन्म-भूमि है, इत्यादि मान कर उन देशों में यात्रा न करे। इस पर से ध्वनित १. वृहत्कल्प भाग-६, प्रस्तावना पृ० २२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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