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________________ ४६ निशीथ : एक अध्ययन होता है कि उक्त प्रदेशों में भाष्य नहीं लिखा गया । संभवतः वह पश्चिम भारत में लिखा गया हो । यदि पश्चिम भारत का भी संकोच करें तो कहना होगा कि प्रस्तुत भाष्य की रचना सौराष्ट्र में हुई होगी। क्योंकि बाहर से आने वाले साधु को पूछे जाने वाले देश सम्बन्धी प्रश्न में मालव और मगध का प्रश्न है' । मालव या मगध में बैठकर कोई यह नहीं पूछना कि प्राप मालव से आ रहे हैं या मगध से ? अतएव अधिक संभव तो यही है कि निशीथ भाष्य की रचना सौराष्ट्र में हुई होगी । और यह भी एक प्रमाण है कि जो मुद्राओं की चर्चा (गा० ६५७ से ) भाष्यकार ने की है, उससे भी यह सिद्ध होता कि वे संभवतः सौराष्ट्र में बैठकर भाष्य लिख रहे थे । निशीथ विशेष- चूर्णि और उसके कर्ता : प्रस्तुत ग्रन्थ में निशीथ भाष्य की जो प्राकृत गद्यमयी व्याख्या मुद्रित है, उसका नाम विशेष चूर्णि है । यह चूर्णिकार की निम्न प्रतिज्ञा से फलित होता है :-- “ पुण्वायरियकथं चिय श्रपि तं चेत्र उ विसेसा || ३ || " - नि० चू०, पृ० १. और अंत में तो और भी स्पष्ट रूप से इस बात को कहा है"तेरा कसा चुणी विसेसनामा निसीहस्स ।" प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, १४, १५, १७, १८, १९, २० उद्देशक के उद्देशक के अन्त में 'निसीह विसेस धुण्णीए' चूर्णि सिद्ध होता है । - नि० चू० भा० ४ पृ० ११. पंचम, षष्ठ, सप्तम और अष्टम, दशम, द्वादश, १३, अंत में 'विसेस - निसीह चुलीए' तथा ६ ११ १६, लिखा है। इससे भी प्रस्तुत चूर्णि का नाम विशेष जिस प्रकार प्राचार्य जिनभद्र का भाष्य श्रावश्यक की विशेष बातों का विवरण करता है, फलतः वह विशेषावश्यक भाष्य है, उसी प्रकार निशीथ भाष्य की विशेष बातों का विवरण करने वाली प्रस्तुत चूर्णि भी विशेष चूर्णि है । अर्थात् यह भी फलित होता है कि प्रस्तुत चूर्णि से पूर्व भी अन्य विवरण लिखे जा चुके थे; किन्तु जिन बातों का समावेश उन विवरणों में नहीं किया गया था उनका समावेश प्रस्तुत चूर्णि में किया गया है—यही इसकी विशेषता है । अन्याचार्य-कृत विवरण की सूचना तो स्वयं चूर्णिकार ने भी दी है कि – 'पुन्त्रायश्यिकयं चिय' 'यद्यपि पूर्वाचार्यों ने विवरण किया है, तथापि मैं करता हूँ' । चूरिंग को मैंने प्राकृतमयी गद्य व्याख्या कहा है, इसका अर्थ इतना ही है कि अधिकांश इसमें प्राकृत ही है । कहीं-कहीं संस्कृत के शब्दरूप ज्यों के त्यों उपलब्ध होते हैं, फिर भी लेखक का झुकाव प्राकृत लिखने की ओर ही रहा है । कहीं-कहीं अभ्यासवश, अथवा जो विषय अन्यत्र से लिया गया उसकी मूल भाषा संस्कृत होने से ज्यों के त्यों संस्कृत शब्द रह गये हैं, १. नि० भा० गा० ३३४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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