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________________ निशीथ : एक अध्ययन (४) भाष्यकार के समक्ष प्राचारांग नियुक्ति, प्रोघनियुक्त, पिंडनियुक्ति, श्रावश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थ थे, जो द्वितीय भद्रबाहु के द्वारा ग्रथित हैं - प्रतएव सिद्धसेन दिवाकर से, द्वितीय भद्रबाहु के पूर्वभावी हैं, भाष्यकार सिद्धसेन भिन्न होने चाहिए । ૪૪ आचारांग - नियुक्ति, जो द्वितीय भद्रबाहु की कृति है, उस पर तो निशीथ भाष्य लिखाही गया है; अतएव इसके विषय में कुछ संदेह नहीं है । श्रावश्यक नियुक्ति भी भाष्यकार के समक्ष थी, इसका प्रमाण निशीथ भाष्य गा० ४० है, जिसमें 'उदाहरणा जहा हेद्वा' कहकर आवश्यकनियुक्ति का निर्देश किया गया है- देखो, निशीथ चूर्णि गा० ४० -- 'जहा हेडा श्रावस तहा' दवा ।' पिंडनियुक्ति का तो शब्दतः निर्देश गा० ४५६ में भाष्यकार ने स्वयं किया है, और चूरिकारने भी fisनियुक्ति पर से विवरण जान लेने को कहा है- नि० चू० गां० ४५७ । चूर्णिकारने गा० २४५४ के 'जो वणितो पुत्रि' अंश की व्याख्या में प्रोघनियुक्ति का उल्लेख किया है – 'पुञ्चत्ति श्रोहनिज्जुतीए' । इसी प्रकार गा० ४५७६ में भी 'पुब्वभणिते' का तात्पर्य चूर्णिकारने 'पुव्वं भणितो मोहनिज्जुत्तीए' लिखा है । ऐसा ही उल्लेख गा० ४६३० में भी है । (५) निशीथ चूर्ण में कही सिद्धसेन आचार्य तो कहीं सिद्धसेन क्षमाश्रमण इस प्रकार दोनों रूप से नाम आते हैं । किन्तु कहीं भी सिद्धसेन के साथ 'दिवाकर' पदका उल्लेख नहीं किया गया है, अतएव भाष्यकार सिद्धसेन, दिवाकर सिद्धसेन से भिन्न हैं । अब इस प्रश्न पर विचार करें कि सिद्धसेन क्षमाश्रमण कब हुए ? जीत कल्प भाष्य की रचना जिनभद्र क्षमाश्रमण ने की है । और उसकी चूर्णि के कर्ता सिद्धसेन हैं । मेरे विचार से ये सिद्धसेन ही प्रस्तुत सिद्धसेन क्षमाश्रमण हैं । चूर्णिकार सिद्धसेन प्राचार्य जिनभद्र के साक्षात् शिष्य हैं, ऐसा इस लिये प्रतीत होता है कि उन्होंने चूर्णि के प्रारंभ में जिनभद्र की स्तुति की है, और स्तुति-वर्णन की शैली पर से झलक रहा है कि वे स्तुति के समय विद्यमान थे। प्रारंभिक मंगल में सर्वप्रथम भगवान् महावीर को नमस्कार किया है, तदनंतर एकादश गणधर और जंबू प्रभवादि को, जो समस्त श्रुतधर थे। तदनंतर दशनव पूर्वधर और प्रतिशयशील शेष श्रुतज्ञानियों को नमस्कार किया है। इसके अनंतर प्रथम प्रवचन को नमस्कार करके पश्चात् जिनभद्र क्षमाश्रमण को नमस्कार किया है । क्षमा श्रमण जी की प्रशस्ति में ६ गाथाओं की रचना की है और वर्तमान कालका प्रयोग किया है; यह खास तौर पर ध्यान देने जैसी बात है। 'मुणिवरा सेवन्ति सया' गा० ६ । 'दप्तसु वि दिलासु जस्स य अणुश्रोगो भमई' - गा० ७ । इससे प्रतीत होता है कि सिद्धसेन प्राचार्य, जिनभद्र क्षमा श्रमण के साक्षात् शिष्य हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । जीत कल्प पर की अपनी चूर्णि में उन्होंने निशीथ की गाथाएं 'सं जहा' कह करके दी हैं - नि० गा० ४६३४८४ और ४८५, जो पृ० ३ में उद्धृत हैं । मुनिराज श्री पुण्य विजयजी ने जिनभद्र को व्यवहार भाष्यकार के बाद का माना है । और प्रमाणस्वरूप विशेषणवती की गाथा ३४ गत 'ववहार' शब्द को उपस्थित करते हुए कहा है कि स्वयं जिनभद्र, प्रस्तुत में, 'व्यवहार' शब्द से व्यवहार भाष्यगत गाथा १९२ ( उद्देश ६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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