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________________ निशीथ भाष्य और उसके कर्ता : ४१ उत्थान में निम्न उल्लेख है - 'इमा पुण सागणिय - शिक्खित्तदारागं दोहवि भद्द्वाहुसामिकता प्रायश्चित ब्याक्यान गाथा ।' गा० २०८ के उत्थान में चूर्णि है - 'इयाणि संघट्टये ति दारं । एयस्स मद्दबाहुसामिकता वक्लाय गाहा' ।' उक्त २०८ वीं गाथा में भद्रबाहु ने नौ प्रवान्तर द्वार बताए हैं। उन्हीं नव श्रवान्तर द्वारों की व्याख्या क्रमशः सिद्धसेन ने गा० २०६ से २११ तक की है-इस बात को चूर्णिकारने इन शब्दों में कहा है- एतेषां भवान्तर- नवद्वारायां) सिद्धसेनाचार्यो म्यारूपणं करोति'गा० २०६ का उत्थान । गा० २०५ से गा० २०६ तक के उत्थान सम्बन्धी उक्त उल्लेखों के आधार पर हम निम्न परिणामों पर पहुंच सकते हैं (अ) स्वयं भद्रबाहु ने भी नियुक्ति में कहीं-कहीं द्वारों का स्पष्टीकरण किया है । श्रथवा मूलद्वार गाथा २०५ को यदि प्राचीन नियुक्त गाथा मानी जाए तो उसका स्पष्टीकरण भद्रबाहु ने किया है । ( ब ) भद्रबाहु कृत व्याख्या का स्पष्टीकरण सिद्धसेनाचार्य ने किया है। इसपर से स्पष्ट है कि भद्रबाहु भी टीकाकार अर्थात् भाष्यकार सिद्धसेनाचार्य हैं । (क) निशीथ गा० २०८, २०६, २१०, २११, २१२, २१४ इसी क्रम से बृहत्कल्प भाष्य में भी हैं। देखिए, गाथा ३४३४, ३४३६-६, और ३४४० । अतएव वहां भी नियुक्तिकार श्रीर भाष्यकार क्रमशः भद्रबाहु और सिद्धसेन को ही माना जा सकता है । प्रसंगवश एकबात और भी यहां कह देना आवश्यक है कि आचार्य हरिभद्र ने श्रावश्यकनियुक्ति के व्याख्या प्रसंग में कुछ गाथात्रों को 'मूल भाष्य' की संज्ञा दी है । प्रस्तुत उल्लेख का तात्पर्य यह लगता है कि हरिभद्र ने आवश्यक के ही जिनभद्रकृत विशेष भाष्य की गाथानों से भद्रबाहुकृत व्याख्या - गाथानों का पार्थक्य निर्दिष्ट करने के लिये 'मूलभाष्य' शब्द का प्रयोग किया है। यह तात्पर्य ठीक है या नहीं, यह अभी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; किन्तु प्रस्तुत में गाथागत एक ही द्वार की स्वयं भद्रबाहुकृत व्याख्या और सिद्धसेन कृत व्याख्या उ लब्ध हो रही है । अतएव प्रन्यत्र भी ऐसे प्रसंग में यदि मूलकारकी व्याख्या और अन्यदीय व्याख्या का पार्थक्य निर्दिष्ट करने के लिये 'मूल भाष्य' शब्द का प्रयोग किया जाए तो इसमें अनौचित्य नहीं है । इतना तो कहा ही जा सकता है कि जब कि जिनभद्र से पूर्व भद्रबाहु से भिन्न अन्य किसी आवश्यक के भाष्यकार का पता नहीं लगता, तब मूल भाष्यकार भद्रबाहु ही हों तो कुछ असंभव नहीं । (२) गा० २६२ में मृषावाद की चर्चा है । इस गाथा को चूर्ण में भद्रवाहु-कृत व्याख्यान गाथा कहा है- 'भावमुसावातस्स भद्द्वाहुसामिकता वक्लायगाहा ।' इस गाथा के पूर्वार्ध की व्याख्या को सिद्धसेन प्राचार्य कृत कहा है- 'पुम्बद्धस्स पुण सिद्धसेणायरियो वखार्या करेसि' - गा० २६३ का उत्थान । इससे सिद्ध होता है कि भाष्यकार सिद्धसेन थे । (३) गा० २६८ और २९६ ये दोनों गाथाएं द्वार-गाथाएं हैं, ऐसा चूर्णिकार ने कहा है । अर्थात् ये नियुक्ति गाथाएँ हैं । इन्हीं दो गाथागत द्वारों की व्याख्या गा० ३०० से ३१६ तक $ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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