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________________ निसीह शब्द और उसका अर्थ : भाव की दृष्टि से जो अप्रकाशरूप हो वह निशीथ कहा जाता है । अर्थात् प्रस्तुत निशीथ सूत्र, इसीलिये निशीथ कहा गण कि यह मूत्ररूप में, अर्थ रूप में और उभय रूप में सर्वत्र प्रकाश-योग्य नहीं है, किन्तु एकान्त में ही पठनीय है। चर्चा का सार यह है कि जो अंधकारमय है-अप्रकाश है, वह लोक में निशीथ नाम से प्रसिद्ध है । अतएव जो भी अप्रकाश. धर्मक हो, वह सब निशीथ कहे जाने योग्य है। "ज होति प्रापगासं, तं तु णिसीहं ति लोग-संसिद्धं । जं अपगासधर्म, प्राणं पि तयं निसी, ति ।' -नि० सू० गा० ६६ भाव निशीथ का लौकिक उदाहरणा रहस्य सूत्र है । हर किसी के लिये अप्रकाशनीय रहस्य सूत्रों में विद्या, मंत्र और योग का परिगणन किया गया है। ये सूत्र अपरिणत बुद्धि वाले पुरुष के समक्ष प्रकाशनीय नहीं हैं, फलतः गुप्त रखे जाते हैं । उसी प्रकार प्रस्तुत निशीथ सूत्र भी गुप्त रखने योग्य होने से 'निशीथ' है । चूणिकार ने निशीथ शब्द का उपयुक्त मूलानुसारी अर्थ करके दूसरे प्रकार से भी अर्थ देने का प्रयत्न किया है : __ कतक फल को द्रव्य निसीह कह सकते हैं, क्योंकि उसके द्वारा जल का मल बैठ जाता है अर्थात् जल से मल का अंश दूर हो जाता है-"जम्हा तेण कलुसुदर पक्खितेण मलो णिसीयति- उदगादवगच्छतीत्यर्थः।" प्रस्तुत में प्राकृत शब्द 'निसीह' का सम्बन्ध संस्कृत शब्द नि x सद् से जोड़ा गया है।' क्षेत्र-णिसीह, द्वीप समुद्रों से बाहिरी लोक है, क्योंकि वहाँ जीव और पुद्गलों का अभाव ज्ञात होता है । "खेत्तणिसीहं बहि दीवसमुहादिलोगा य, जाड़ा ते पप्प जीवपुग्गलाणं तदभावो अव. गति ।" जिस प्रकार द्रव्य निशीथ में पानी से मैल का अपगम विवक्षित था, उसी प्रकार यहां भी अपगम ही विवक्षित है । अर्थात् ऐसा क्षेत्र, जिसके प्रभाव से जीव तथा पुद्गलों का अपगम होता है- अर्थात् वे दूर हो जाते हैं , क्षेत्र निशीथ कहा जाता है। कालणिसीह दिन को कहा गया है। वह इसलिये कि रात्रि के अंधकार का अपगम दिन होते ही हो जाता है । “कालाणिसीहं अहो, तं पप्प रातीतमस्स निसीयणं भवति ।" यहाँ भी णिसीह शब्द का अपगम अर्थ ही अभिप्रेत है। भावणिसीह की व्याख्या स्वयं भाष्य कार ने की है : अट्ठविह-कम्मपंको णिसीयते जेण तं णिसीधं । -नि० सू० गा०७० १. 'उपनिषद्' शब्द में भी 'उप + नि + सद्' है । उसका अर्थ है-जिस ब्रह्मज्ञान के द्वारा अज्ञानमल निरस्त होता है वह 'उपनिषद' है । अथवा जो गुरू के समीप बैठकर सीखा जाता है वह 'उपनिषद्' है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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