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निशीथ : एक अध्ययन अर्थात् अष्टविध कर्ममल जिससे बैठ जाए'-दूर हो जाए, वह निशीथ है।
स्पष्ट है कि यहाँ भी णिसीह शब्द में मूल धातु नि x सद् ही माना गया है । 'उपनिषद्' शब्द में भी उप x नि x सद् धातु है। उसका तात्पर्य भी पास में बिठा कर गुरु द्वारा दी जाने वाली विद्या से है । अर्थात् उपनिषद् शब्द का भी 'रहस्य' 'गोप्य' एवं 'अप्रकाश्य' अर्थ की ओर ही संकेत है । निषेध शब्द में मूल धातु नि x सिध है । अतः स्पष्ट ही है कि वह यहाँ विवक्षित नहीं है।
तात्पर्य यह है कि णिसीह-निशीथ शब्द का मुख्य अर्थ गोप्य है । अस्तु जो रात्रि की तरह अप्रकाशरूप हो, रहस्यमय हो, अप्रकाशनीय हो, गुप्त रखने योग्य हो, अर्थात् जो सर्व. साधारण न हो, वह निशीथ है । यह प्राचार-प्रकल्प शास्त्र भी वैसा ही है, अतः इसे निशीथ सूत्र कहा गया है। णिसीह-निशीथ शब्द का दूसरा अर्थ है-जो निसीदन करने में समर्थ हो। अर्थात् जो किसी का अपगम करने में समर्थ हो, वह 'णिसीह निशीथ है । प्राचारप्रकल्प शास्त्र भी कर्ममल का निसीदन- निराकरण करता है, अतएव वह भी निशीथ कहा जाता है। हाँ, तो उपयुक्त दोनों अर्थों के अाधार पर प्राकृत 'णिसीह' शब्द का सम्बन्ध 'निषेध' से नहीं जोड़ा जा सकता।
निशीथ चूर्णि में शिष्य की ओर से शंका की गई है कि यदि कर्मविदारण के कारण आयारपकप्प शास्त्र को निशीथ कहा जाता है, तब तो सभी अध्ययनों को निशीथ कहना चाहिए; क्योंकि कर्मक्षय करने की शक्ति तो सभी अध्ययनों में है । गुरु की ओर से उत्तर दिया गया है कि अन्य सूत्रों के साथ समानता रखते हुए भी इसकी एक अपनी विशेषता है, जिसके कारण यह सूत्र 'निशीथ' कहा जाता है। वह विशेषता यह है कि यह शास्त्र, अन्यों को अर्थात् अधिकारी से भिन्न व्यक्तियों को, सुनने को भी नहीं मिलता। अगीत, अति परिणामी
और अपरिणामी अनधिकारी हैं, अतः वे उक्त अध्ययन को सुनने के भी अधिकार नहीं हैं, क्योंकि यह सूत्र अनेक अपवादों से परिपूर्ण है । और उपयुक्त अनधिकारी अनेक दोषों से युक्त होने के कारण यत्र तत्र अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं।
एक ओर भी शंका-समाधान दिया गया है । वह यह कि जिस प्रकार लौकिक प्रारण्यक प्रादि शास्त्र रहस्यमय होने से निशीथ हैं, उसी प्रकार प्रस्तुत लोकोत्तर शास्त्र भी निशीथ है। दोनों में रहस्यमयता की समानता होने पर भी प्रस्तुत प्राचारप्रकल्पशास्त्र-रूप निशीथ को यह विशेषता है कि वह कर्ममल को दूर करने में समर्थ है जबकि अन्य लौकिक निशीथ
१. यहाँ बैठने से कर्म का क्षय, क्षयोपशम और उपशम विवक्षित है। २. गाथा में 'णिसीध' पाठ है। वह 'कथ' के 'कध' रूप की याद दिलाता है। मात्र शब्द
श्रुति के आधार पर 'णिसीध' का 'निषेध' से सम्बन्ध न जोडिए, क्योंकि व्युत्पत्ति में
'रिणसीयते जेण' लिखा हुपा है। ३. नि० गा०७० की चूणि । ४. 'प्रविसेसे वि विसेसो सुई पि जेणे इ भएणे सिं-नि० गा० ७०
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