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निसीह शब्द और उसका अर्थ : character of the Contents would lead us to expect Nishedha (fata)'
अर्थात् उनके मतानुसार 'निसीह' शब्द का स्पष्टीकरण संस्कृत में 'निषेध' शब्द के साथ संबन्ध जोड़कर होनी चाहिए, न कि 'निशीय' शब्द से । अपने इस मत की पुष्टि में उन्होंने दश सामाचारीगत द्वितीय 'नैषेधिकी' समाचारी के लिये प्रयुक्त २ 'निसीहिया' शब्द को उपस्थित किया है । तथा स्वाध्याय-स्थान के लिये प्रयुक्त 'निसीहिया' 3 शब्द का भी उल्लेख किया है । और उन शब्दों की व्याख्यानों को देकर यह फलित किया है कि From this we may indubitably couclude that the explanation by Nishitha (ftate) is simply an error'-अर्थात् 'निसीह' शब्द को 'निशीथ' शब्द के द्वारा व्याख्यात करना भ्रम है। गोम्मटसार की व्याख्या भी इसी ओर संकेत करती है । दिगम्बरपरंपरा में इस शाख के लिये प्रयुक्त शब्द 'णिसिहिय' या 'णिसीहिय' है। अतएव उक्त शब्द की व्याख्या, उस प्रकार के अन्य शब्द के आधार पर, 'निषिधक' या 'निषिद्धिका' होना असंगत नहीं लगता।
दिगम्बरों के यहाँ प्राकृत शब्दों का जब संस्कृतीकरण हमा, तब उनके समक्ष वे मूल शास्त्र तो थे नहीं। अतएव शब्दसादृश्य के कारण वैसा होना स्वाभाविक था। किन्तु देखना यह है कि जिनके यहाँ मूल शास्त्र विद्यमान था और वह पठन पाठन में भी प्रचलित था, तब यदि उन्होंने 'निसीह' की संस्कृत व्याख्या 'निशीथ' शब्द से की तो, क्या वह उचितथा या नहीं। समग्र ग्रन्थ के देखने से, और नियुक्तिकार आदि ने जो व्याख्या की है उसके आधार पर, तथा 'खास कर तत्त्वार्थ भाष्य को देखते हुए, यही कहना पड़ता है कि 'निसीह' शब्द का संबन्ध व्याख्याकारों ने जो 'निशीथ' के साथ जोड़ा है, वह अनुचित नहीं है । निशीथ सूत्र में प्रतिपाद्य निषेध नहीं है, किन्तु निषिद्धवस्तू के प्राचरण से जो प्रायश्चित्त होता है उसका विधान है। अर्थात् जहाँ कल्प आदि सूत्रों में या प्राचारांग की प्रथम चार चूलामों में निषेधों की तालिका है वहाँ निशीथ में उनके लिये प्रायश्चित्त का विधान है। स्पष्ट है कि निषिद्ध वस्तु का या निषेध का प्रतिपादन करना, यह इस ग्रन्थ का मुख्य प्रयोजन नहीं है । गौणरूप से उन निषिद्ध कृत्यों का प्रसंगवश उल्लेख मात्र है । क्योंकि उनका कथन किए बिना प्रायश्चित्त का विधान कैसे होता ? ध्यान देने की बात तो यह है कि इस ग्रन्थ में ऐसा एक भी सूत्र नहीं मिलता, जो निषेध-परक हो। ऐसी स्थिति में 'निषेध' के साथ इसका संबन्ध जोड़ना अनावश्यक है । वस्तु स्थिति यह है कि वेबर ने और गोम्मट-टीकाकार ने, इस ग्रन्थ के नाम का जो अर्थ प्राचीन टीकाकारों ने
१. इन्डियन एन्टीक्वेरी, भा० २१, पृ० ६७ २. उत्तराध्ययन २६, २ ३. दशव० ५, २, २ ४. इन्डियन एन्टीक्वेरी, भा० २१, पृ० १७
इसका समर्थन वीरसेनाचार्य ने भी किया है-"णिसिहियं बहुविहपायच्छित्तविहाणवरणणं कुण"-धवला, भाग १, पृ० १८ । "याणामेदभिरणं पायच्छित्तविहाणं णिसीहियं वरणेदि"-जयधवला, मा० १, पृ० १२१ ।
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