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निशीध का महत्त्व :
प्रोर महत्त्वपूर्ण संकेत है। साथ ही यह भी कहा गया है कि केवल दीक्षापर्याय ही अपेक्षित नहीं है, परिणत बुद्धि का होना भी आवश्यक है ।
दोषों की आलोचना, किसी अधिकारी गुरु के समक्ष, करनी चाहिए। प्राचीन परंपरा के अनुसार कम-से-कम कल्प और प्रकल्प -- -- निशीथ का ज्ञान जिसे हो, उसी के समक्ष प्रालोचना की जा सकती है | जब तक कोई श्रुत साहित्य में निशीथ का ज्ञाता न हुम्रा हो, तब तक वह यालोचना सुनने का अधिकारी नहीं होता - यह प्राचीन परंपरा रही है । आगे चलकर कल्प शब्द से दशा, कल्प और व्यवहार- ये तीनों शास्त्र विवक्षित माने गये हैं । और गाथागत 'तु' शब्द से अन्य भी महाकल्प सूत्र, महा-निशीथ और नियुक्ति पीठिका भी विवक्षित है, ऐसा माना जाने लगा । किन्तु मूल में कल्प और प्रकल्प - निशीथ ही विवक्षित रहे, यह निशीथ की महत्ता सिद्ध करता है । ग्रालोचनाएं ही नहीं, किन्तु उपाध्याय पद के योग्य भी वही व्यक्ति माना जाता था, जो कम-से-कम निशीथ को तो जानता ही हो' । श्रुत ज्ञानियों में प्रायश्चित्त दान का अधिकारी भी वही है, जो कल्प और प्रकल्प निशीथ का ज्ञाता हो। इससे भी शास्त्रों में निशीथ का क्या महत्त्व है, यह ज्ञात होता है "। इसका कारण यह है कि अनाचार के कारण जो प्रायश्चित्त आता है, उसका विधान निशीथ में विशेष रूप से मिलता है । और उस प्रायश्चित्त विधि के पीछे बल यह है कि स्वयं निशीथ का आधार पूर्वगत श्रुत है, अतः उससे भी शुद्धि हो सकती है। इसका फलितार्थ यह है कि केवली और चतुर्दश पूर्ववर को प्रायश्चित्त दान का जैसा अधिकार है, प्रकल्प - निशीथ घर को भी वैसा ही अधिकार है' । निशीथ सूत्र के अधिकारी और अधिकारी का विवेक करते हुए भाष्यकार ने अंत में कहा है कि जो रहस्य को संभाल न सकता हो, जो अपवाद पद का आश्रय लेकर अनाचार में प्रवृत्ति करने वाला हो, जो ज्ञानादि आचार में प्रवृत्त न हो, ऐसे व्यक्ति को निशीथ सूत्र का रहस्य बताने वाला संसार-भ्रमण का भागी होता है । किन्तु जो रहस्य को पचा सकता हो, यावज्जीवन पर्यन्त उसको धारण कर सकता हो, मायावी न हो, तुला के समान मध्यस्थ हो, समित हो, और जो कल्पों के अनुपालन में स्वयं संलग्न होकर दूसरों के लिये मार्ग दर्शक दीपक का काम करता हो, वह धर्ममार्ग का आचरण करके अपने संसार का उच्छेद कर लेता है । अर्थात् निशीथ के बताये मार्ग पर चलने का फल मोक्ष है।
१. व्यव० उद्देश १० सू० २०-२१; व्यवहार भा० गा० १०१ - १०२ । तथा नि० ० ० ३ २. नि० गा० ६३९५ और व्यवहार भाष्य, विभाग- २, गा० १३७;
३. निशीथ चू० गा० ६३६ : मौर व्यवहार टीका विभाग २, गा० १३७;
४.
व्यवहार सूत्र उद्देश ३, सूत्र ३
५.
नि० गा० ६४६८
६.
नि० गा० ६४२७, ६४६६
७. वही, गा० ६५०० व्यवहार भाष्य द्वि० विभाग, गा० २५४; तृ० विभाग, गा० १६६
८. बडी, गा० ६६७४ तथा व्यवहार द्वितीय विभाग, भाष्य गा० २२१
६.
नि० ६००२ - ६७०३, व्यवहार उद्देश १०, सूत्र २० ।
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