SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निशीथ : एक अध्ययन जाने पर, चरणानुयोग के अन्तर्गत हो गया। किन्तु जो अन्य छेद अध्ययन अंग बाह्य हैं, उनका समावेश कहां होगा ? उत्तर में कहा गया है कि वे छेद सूत्र भी चरणानुयोग में ही सम्मिलित समझने चाहिएं। इससे स्पष्ट है कि समग्र छेदों में से केवल निशीथ ही अंगान्तर्गत है। भाष्यकार के मत से छेदसूत्र उत्तम अत' है। निशीथ भी छेद के अन्तर्गत है, अतः उक्त उल्लेख पर से उसकी भी उत्तमता सूचित होती है। कहा गया है कि प्रथम चरणानुयोग का अर्थात् प्राचारांग के नव अध्ययन का ज्ञान किये बिना ही जो उत्तमश्रुत का अध्ययन करता है, वह दंडभागी बनता है । छेद सूत्रों को उत्तम श्रुत क्यों कहा गया ? इसका उत्तर दिया गया है कि छेदों में प्रायश्चित्त-विधि बताई गई है, और उससे पाचरण की विशुद्धि होती है । अतएव यह उत्तम श्रुत है । उपाध्यायादि पदों की योग्यता के लिये भी निशीथ का ज्ञान आवश्यक माना गया है। निशीथ के ज्ञाता को ही अपनी टोली लेकर पृथक् विहार करने की आज्ञा शास्त्र में दी गई है। इसके विपरीत यदि किसी को निशीथ का सम्यक् ज्ञान नहीं है, तो वह अपने गुरु से पृथक होकर, स्वतंत्र विहार नहीं कर सकता। प्राचार प्रकल्प निशीथ का उच्छेद करने वालों के लिये विशेष रूप से दण्ड देने की व्यवस्था की गई है । इतना ही नहीं, किन्तु निशीथ-घर के लिये विशेष अपवाद मार्ग की भी छूट दी गई है। इन सब बातों सेलोकोस र दृष्टि से भी निशीथ को महत्ता सिद्ध होती है। छेद सूत्र को प्रवचन रहस्य' कहा गया है । उसे हर कोई नहीं पढ़ सकता, किन्तु विशेष योग्यतायुक्त ब्यक्ति ही उसका अधिकारी होता है। अनधिकारी को इसकी वाचना देने से, वाचक, प्रायश्चित्त का भागी होता है। इतना ही नहीं, किन्तु योग्य पात्र को न देने से भी प्रायश्चित्त का भागी होता है । क्योंकि ऐसा करने पर सूत्र-विच्छेद आदि दोष होते हैं । '२ प्राचार प्रकल्प-निशीथ के अध्ययन के लिये कम-से-कम तीन वर्ष का दीक्षापर्याय विहित हैं । इससे पहले दीक्षित साधु भी इसे नहीं पढ़ सकता है। 3 । यह प्रस्तुत शास्त्र के गांभीर्य की १. नि० गा० ६१८४ २. नि० सू० उ० ११ सू० १८, भाष्य गा० ६१८४ ३. नि० गा० ६१८४ की चूणि ४. व्यवहार सूत्र उद्देश ३, सू० ३-५, १० ५. व्यवहार भाग-४, गा० २३०, ५६६ ६. वही, उद्देश ५, सू० १५-१८ । ७. वही, उद्देश ६, पृ० ५७-६० । ८. नि. चू० गा. ६२२७, व्यवहार भाष्य तृतीय विभाग, पृ: ५८ । ६. अनधिकारी के लिये, देखो-नि० चू० भा० गा० ६१६८ से । १०. नि० सू० उ० १६ सू० २१ । ११. वही, सू० २२ १२. नि० गा० ६२३३ । १३. नि. चू० गा० ६२६५, व्यवहार भाष्य - उद्देश ७, गा० २०:- ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy