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समाज का ही। और प्रतीत का ठीक-ठीक अध्ययन किए विना, न वर्तमान समझ में आ सकता है और न भविष्य ही । संसार की संघर्ष-भूमिका से अलग-थलग रहने वाले भिक्षु-समाज के जीवन में भी भला-बुरा परिवर्तन कब आता है, क्यों आता है, और वह क्यों आवश्यक हो जाता है, इन सब प्रश्नों का उत्तर हम छेद-सूत्रों पर के विस्तृत भाष्यों तथा चूणियों से ही प्रात कर सकते हैं। इतना ही नहीं, छेदसूत्रों का अपना स्वयं का मूल ग्रन्थ भी भाष्य और चूणि के बिना यथार्थतः समझ में नहीं आ सकता । यदि कोई भाष्य और चूणि को अवलोकन किए बिना छेदसूत्रगत मूल रहस्यों को जान लेने का दावा करता है, तो मैं कहूँगा, क्या तो वह भ्रान्ति में है, या दंभ में है । दूसरों की बात छोड़ भी दूं, किन्तु मैं अपनी बात तो सच्चाई के साथ कह सकता हूँ कि मूल, केवल मूल के रूप में कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आया । भाष्यों ओर चूणियों का अध्ययन करने पर ही पता चला कि वस्तुतः छेदसत्र क्या है ? उनका गुरुगंभीर मर्म क्या है ? उत्सर्ग और अपवाद क्या हैं ? अपवाद में भी मार्गत्व क्या है और वह क्यों है ? इत्यादि ।
निशीथ भाष्य तथा चूर्णिः
छेदसूत्रों में निशीथसूत्र का स्थान सर्वोपरि है। वह प्राचारांगसूत्र का ही, एक भाग माना जाता है । प्राचारांग सूत्र के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध नौ प्रध्ययनों में विभक्त हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पाँच चूला हैं । प्रस्तुत निशीथ सूत्र पाँचवीं चूला है। अतएव निशीथ पीठिका में कहा है - 'एनाहिं पंचहि चूलाहिं सहितो पायारो।' चौथी चूला तक का भाग आचारांग कहा जाता है, और पाँचवीं चला निशीथ के रूप में अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। किन्तु है वह मूल रूप में आचारांग मूत्र का ही एक अंग । इसीलिए निशीथसूत्र को यत्र-तत्र निशीथ चूला- अध्ययन कहा गया है । और निशीथ-सूत्र का एक और नाम जो श्राचार - प्रकल्प है, उसके मूल में भी यही भावना अन्तनिहित है।
आचारांग-सूत्र भिक्षु की प्राचार - संहिता है । उसमें विस्तार के साथ बताया गया है कि भिक्ष को कैसे रहना चाहिए, कैसे खाना चाहिए, कैसे पीना चाहिए, कसे चलना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए
मादि । निशीथ सूत्र में आचारांग - निर्दिष्ट प्राचार में स्खलना होने पर कब, कसा, क्या प्रायश्चित लेना चाहिए, यह बताया गया है। अतएव निशीथ सूत्र आचारांग का, जैसा कि उसका नाम चूला है, अन्तिम पाँचवाँ शिखर है। प्राचारांग सूत्र के अध्ययन की पूर्णाहुति निशीथ सूत्र के अध्ययन में ही होती है, पहले नहीं।
निशीथ-सूत्र मूल पर एक नियुक्ति है, मूल और नियुक्ति पर भाष्य है, और इन सब पर चूणि है । निशीथ-सूत्र मूल, नियुक्ति, भाष्य और चणि के कर्ता कौन महान् श्रतधर हैं, इसकी चर्चा अन्यत्र किसी खण्ड में करने का विचार है । प्रस्तुत प्रथम खण्ड में हम केवल यही कहना चाहते हैं-कि निशीथ सूत्र जैसे महान् है, वैसे ही उसके भाष्य और चूर्णि भी महान् हैं । मूलसूत्र का मर्मोद्घाटन भाष्य और चण में यत्र-तत्र इतनी सुन्दर एवं विश्लेषणात्मक पद्धति से किया गया है कि हृदय सहसा गद्गद् हो जाता है। प्राज को सर्वथा अाधुनिक कही जाने वाली रिसर्च पद्धति के दर्शन, हमें उस प्राचीन काल में भी मिलते हैं, जबकि साहित्यसामग्री आज के समान सर्वसुलभ नहीं थी।
प्रागमोद्धारक प्रादरणीय पुण्यविजयजी के अभिमतानुसार भाष्य के निर्माता प्राचार्य संघदास गणी बड़े ही बहुश्रुत आगम-मर्मज्ञ हैं । छेदसूत्रों के तो वे तलस्पर्शी विद्वान् हैं। उनकी जोड़ का और कोई
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