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________________ ( २ ) छंद - सूत्रों की परम्पराः श्रागम - साहित्य में छेद सूत्रों का स्थान और भी महत्त्वपूर्ण है । भिक्षु-जीवन की साधना का सर्वाङ्गीण विवेचन छेद-सूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक आखिर साधक है । उसको कुछ मर्यादा है । वह सावधानी रखता हुआ भी कभी असावधान हो सकता है, कभी-कभी क्या कर्तव्य है और क्या प्रकर्तव्य इसका ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो पाता, कभी-कभी कर्मोदय के प्राबल्य से जानता हुआ भी मर्यादाहीन प्राचरण से अपने को पराङ् मुख नहीं कर सकता, कभी-कभी धर्म और संघ की रक्षा के प्रश्न भी शास्त्रीय विधि - निषेध की सीमा को लाँघ जाने के लिए विवश कर देते हैं । इत्यादि कुछ ऐसी स्थितियाँ हैं, जिनमें उलझने पर साधक को पुनः सँभलने के लिए कुछ प्रकाश चाहिए । यह प्रकाश छेद सूत्रों के द्वारा ही मिल सकता है । छेद का अर्थ है. - जीवन में से असंयम के अंश को काट कर अलग कर देना, साधना में से दोषजन्य अशुद्धता के मल को धोकर साफ कर देना । और जो शास्त्र भूलों से बचने के लिए पहले सावधान करते हैं. भूल हो जाने पर पुनः सावधान करते हैं, तथा भूलों के परिमार्जन के लिए यथावसर उचित निर्देश देते हैं, वे छेद शास्त्र कहलाते हैं । भिक्षु जीवन की समस्त आचार संहिता का रसपरिपाक छेद सूत्रों में ही हुआ है । यही कारण है कि छेदसूत्रों का गंभीर अध्ययन किए बिना कोई भी भिक्षु अपना स्वतंत्र मंघाड़ा (समुदाय) लेकर ग्रामानुग्राम विचरण नहीं कर सकता, गीतार्थं नहीं बन सकता, प्राचार्य और उपाध्यायजैसे उच्च पदों का अधिकारी नहीं हो सकता । यदि कोई प्राचार्य बनने के बाद छेदसूत्रों को भूल जाता है, और उनको उपस्थित नहीं करपाता है, तो वह आचार्य पद पर प्रतिष्ठित नहीं रह सकता । छेदसूत्रों पुनः के ज्ञानाभाव में श्रमणसंघ का नेतृत्व नहीं किया जा सकता, और न वह हो ही सकता है। फिर तो 'अन्धेनंव नीयमाना यथाऽन्धा.' की भणिति चरितार्थं होती है । भला, जो स्वयं अंधा है, वह दूसरे अन्धों का पथ-प्रदर्शक कैसे हो सकता है ? भाष्य और चूर्णियाँ: । छेदसूत्र बहुत संक्षिप्त शैली से लिखे गए हैं। जितना उनका अर्थ शरीर विराट् है, उतना ही उनका शब्द-शरीर लघुतम हैं। थोड़े से इने-गिने शब्दों में विशाल अर्थों की योजना इस खूबी से की गई है कि सहसा प्राश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है । जब हम छेदसूत्रों पर के भाष्य और उनकी चूर्गियों को पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानों सूत्रीय शब्द-बिन्दु में अर्थ-सिन्धु समाया हुआ है। एक-एक सूत्र पर, उसके एक-एक शब्द पर इतना विस्तृत ऊहापोह किया गया है, इतना चिन्तन मनन किया गया है कि ज्ञान की गंगा-सी बह जाती है । साधुता का इतना सूक्ष्म विश्लेषण, जीवन के उतार चढ़ाव का इतना स्पर चित्र, अन्यत्र दुर्लभ है, दुष्प्राप्य एक प्राचीन संस्कृत कवि के शब्दों में यही कहना होता है कि 'यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ।' साधना के सम्बन्ध में जो यहाँ है, वह ग्रन्यत्र भी है, और जो यहाँ नहीं, वह अन्यत्र भी कहीं नहीं । एकमात्र धार्मिक जीवन ही नहीं, तत्कालीन भारत का प्राचीन सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का सच्चा इतिहास भी भाष्य और चर्णियों के अध्ययन से ही जाना जा सकता है। यही कारण है कि आज के तटस्थ शोधकः समाजशास्त्री विद्वान्, अपने शोधन ग्रन्थों के लिए अधिकतम विचारसामग्री, भाष्यों और चूणियों पर से ही प्राप्त करते है । मैं स्वयं भी अपने यदाकदा किए गए क्षुद्र अध्ययन के आधार पर कह सकता हूँ कि भाष्यां और चूगियों के अध्ययन के बिना न तो हम प्राचीन साधु-समाज का जीवन समझ सकते हैं और न गृहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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