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________________ ८५ प्राचार्य : पुस्तक : थे। स्थूलभद्र के दो शिष्य थे- प्रार्यमहागिरि और प्रार्य सुहत्थी । प्रायमहागिरि ज्येष्ठ थे, किन्तु स्थूलभद्र ने प्रार्य सुहत्थी को पट्टधर बनाया। फिर भी ये दोनों प्रीतिवश साथ ही विचरण करते रहे । सम्प्रति राजा ने, अपने पूर्वभव के गुरु जानकर भक्तिवश सुहत्थी के लिये पाहारादि का प्रबंध किया। इस प्रकार कुछ दिन तक सुहत्थी और उनके शिष्य राजपिंड लेते रहे । प्रार्य महागिरि ने उन्हें सचेत भी किया, किन्तु सुहस्ती न माने, फलतः उन्होंने सुहस्ती के साथ ग्राहारविहार करना छोड़ दिया, अर्थात् वे असांभोगिक बना दिये गए। तत्पश्चात् सुहत्थी ने जब मिथ्या दुष्कृत दिया, तभी दोनों का पूर्ववत् व्यवहार शुरू हो सका। तब से ही श्रमणों में सांभोगिक और विसंभोगिक, ऐसे दो वर्ग होने लगे (नि० गा० २१५३-२१५४ को चूणि)। यही भेद आगे चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर रूप से दृढ़ हुआ, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। प्रार्य रक्षित ने श्रमणों को, उपधि में मात्रक (पात्र) की अनुज्ञा दी। इसको लेकर भी संघ में काफी विवाद उठ खड़ा हुना होगा; ऐसा निशीथ भाष्य को देखने पर लगता है । कुछ तो यहाँ तक कहने लगे थे कि यह तो स्पष्ट ही तीर्थंकर की आज्ञा का भंग है। किन्तु निशीथ भाष्य, जो स्थविर कल्प का अनुसरण करने वाला है, ऐसा कहने वालों को ही प्रायश्चित का भागी प्रार्यरक्षित ते देशकाल को देखते हए जो किया. उचित ही किया। इसमें तीर्थकर की आज्ञाभंग जैसी कोई बात नहीं है। जिस पात्र में खाना, उसी का शौच में भी उपयोग करना; यह लोक विरुद्ध था। अतएव गच्छवासियों के लिये लोकाचार की दृष्टि से दो पृथक् पात्र रखने आवश्यक हो गये थे- ऐसा प्रतीत होता है और उसी आवश्यकता को पूर्ति आचार्य प्रार्यरक्षित ने की ( नि० गा० ४५२८ से )। प्राचार्य : ___लाटाचार्य (१९५०), आर्यखपुट (२५८७), विष्णु (२५८७), पादलिस (४४६०), चंद्ररुद्ध (६६१३) गोविंदवाचक (२७६६,३४२७, ३५५६) आदि का उल्लेख भी निशीथ-भाष्य-चूणि में मिलता है। पुस्तक : पाँच प्रकार के पोत्यय -पुस्तकों का उल्लेख है। वे ये हैं-गंडी, कच्छभी, मुट्ठी, संपुड तथा छिवाडी'। इनका विशेष परिचय मुनिराज श्री पुण्य विजयजी ने अपने 'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति और लेखन कला' नामक निबन्ध में (पृ० २२-२४ ) दिया है। उपयुक्त पांचों ही प्रकार के पुस्तकों का रखना, श्रमणों के लिए, निषिद्ध था; क्योंकि उनके भीतर जीवों के प्रवेश की संभावना होने से प्राणातिपात की संभावना थी (नि० गा० ४००.) किन्तु जब यह देखा गया कि ऐसा करने में श्रुत का ही ह्रास होने लगा है, तब यह अपवाद करना पड़ा कि कालिक श्रुत = अंग ग्रन्थ तथा नियुक्ति के संग्रह की दृष्टि से पांचों प्रकार के पुस्तक रखे जा सकते हैं-( नि० गा० ४०२० ) । १. नि० गा० १४१६; ४००० चू० वृ० गा० ३८२२ टी०; ४०६६ । २. 'कालियसुर्य' मायारादि एक्कारस अंगा-नि० गा० ६१८६ चू० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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