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________________ निशीथ : एक अध्ययन में 'सावग' वर्ग था। ये 'सावग' = श्रावक दो प्रकार के थे-अणुव्रती और अनणुव्रती-जिन्होंने अणुब्रतों का स्वीकार नहीं किया है (नि० गा० ३४६ चू०)। अणुव्रती को 'देशसावग' और प्रनणुव्रती को 'दसणसावग' कहा जाता था ( नि० गा० १४२ चू० )। मुण्डित मस्तक का दर्शन अमंगल है-ऐसी भावना भी (नि० गा० २००५ चूणि ) सर्वसाधारण में घर कर गई थी। इसे भी श्रमण-द्वेष का ही कुफल समझना चाहिये । श्रमण परम्परा में निग्रन्थ, शाक्य, तापस, गेरु, और ग्राजीवकों का समावेश होता था (नि. गा० ४४२०, २०२० चू०)। निशीथ भाष्य और चूर्णि में अनेक मतों का उल्लेख है, जो उस युग में प्रचलित थे और जिनके साथ प्रायः जैन भिक्षुत्रों की टकूर होती थी। इनमें बौद्ध, ग्राजीवक और ब्राह्मण परिव्राजक मुख्य थे। बौद्धों के नाम विविध रूप से मिलते हैं-भिक्खुग, रत्तपड, तच्चणिय, सक्क अादि । ब्राह्मण परिव्राजकों में उलूक, कपिल, चरक, भागवत तापस, पंचग्गि-तावस, पंचगव्वासणिया, सुईवादी, दिसापोक्खिय, गोव्वया, ससरक्ख प्रादि मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त कापालिक, वैतुलिक, तडिय कप्पडिया आदि का भी उल्लेख है - देखो, नि० गा० १, २४, २६, ३२३, ३६७, ४६८, १४८४, ५४४०, १४७३, १४७५, २३४३, ३३१०, ३३५४, २३५८, ३७००, ४०२३, ४११२ चूर्णि के साथ । परिव्राजकों के उपकरणों का भी उल्लेख है-मत्त, दगवारग, गडुअग्र, प्रायमणी, लोट्टिया, उल्लंकन, वारप्र, चडुयं, कव्वय-गा० ४११३ । । ___ यक्षपूजा (गा० ३४८६), रुद्रघर ( ६३८२) तथा भल्लीतीर्थ (गा० २३४३) का भी उल्लेख है। भृगु कच्छ के एक साधु ने दक्षिणापथ में जाकर, जब एक भागवत के समक्ष, भल्ली तीर्थ के सम्बन्ध में यह कथा कही कि वासुदेव को किस प्रकार भाला लगा और वे मर गये, अनन्तर उनकी स्मृति में भल्लीतीथ की रचना हुई, तो भागवत सहसा रुष्ट हो गया और श्रमण को मारने के लिए तैयार हो गया । अन्ततः वह तभी शांत हुग्रा और क्षमा याचना की, जब स्वयं भल्लीतीथं देख पाया। जैनों ने उक्त मतांतरों को लौकिक धर्म कहा है। मूलतः वे अपने मत को ही लोकोत्तर धर्म मानते थे। महाभारत, रामायण प्रादि लौकिक शास्त्रों की असंगत बातों का मजाक भी उड़ाया है। इस सम्बन्ध में चूर्णिकार ने पाँच धूर्तों की एक रोचक कथा का उल्लेख किया है ( नि. गा० २६४-६) । इतना ही नहीं, विरोधी मत को अनायं भी कह दिया है (५७३२) ___ जैन धर्म में भी पारस्परिक मतभेदों के कारण जो अनेक सम्प्रदाय-भेद उत्पन्न हुए, उन्हें 'निह्नह' कहा गया है, और उनका क्रमशः इतिहास भी दिया हुअा है (गा० ५५६६-५६२६) 'पासंड' शब्द निशीथ भाष्य तक धार्मिक सम्प्रदाय के अर्थ में ही प्रचलित था। इस में जैन और जैनेतर सभी मतों का समावेश होता था। निशीथ में कई जैनाचार्यों के विषय में भी ज्ञातव्य सामग्री मिलती है। प्रायमंगु और समुद्र के दृष्टान्त अाहार-विषयक गृद्धि और विरक्ति के लिये दिये गये हैं (गा० १११६) । स्थूलभद्र के समय तक सभी जैन श्रमणों का आहार-विहार साथ था; अर्थात् सभी श्रमण परस्पर सांभोगिक १. नि० गा० ६२६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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