________________
श्रमण-ब्राह्मण :
से मुक्त न हो सकने पर जिसे दास कर्म करना पड़ता था, उसे 'अणए' कहते थे। दुर्भिक्ष के कारण भी लोग दासकर्म करने को तैयार हो जाते थे। राजा का अपराध करने पर दंडस्वरूप दास भी बनाये जाते थे (नि० गा८ ३६७६)। कोसल के एक गीतार्थ प्राचार्य की बहन ने किसी से उछीना (उधार) तेल लिया था, किन्तु गरीबी के कारण, वह समय पर न लौटा सकी, परिणामस्वरूप बेचारी को तेलदाता की दासता स्वीकार करनी पड़ी। अन्ततः गीतार्थ आचार्य ने कुशलतापूर्वक मालिक से उक्त दासी की दीक्षा के लिये अनुज्ञा प्राप्त की और इस प्रकार वह दासता से मुक्त हो सकी । यह रोमांचक कथा भाष्य में दी गई है ( नि० गा० ४४८७-८८)।
श्रमण-ब्राह्मण :
श्रमण और ब्राह्मण का परस्पर वैर प्राचीनकाल से ही चला पाता था। वह निशीथ की टीकोपटीकानों के काल में भी विद्यमान था ( नि० गा० १०८७ चू०) अहिंसा के अपवादों को चर्चा करते समय, श्रमण द्वारा, ब्राह्मणों की राजसभा में की गई हिंसा का उल्लेख किया जा चुका है। ब्राह्मणों के लिये चूणि में प्रायः सर्वत्र धिज्जातीय' ( नि० गा० १६, ३२२, ४८७, ४४४१ ) शब्द का प्रयोग किया गया है । जहाँ ब्राह्मणों का प्रभुत्व हो, वहाँ श्रमण अपवादस्वरूप यह झूठ भी बोलते थे कि हम कमंडल (कमढग) में भोजन करते हैं-ऐसी अनुज्ञा है ( नि० गा० ३२२ ) । श्रमणों में भी पारस्परिक सद्भाव नहीं था ( नि० सू० २.४० )। बौद्धभिक्षुत्रों को दान देने से लाभ नहीं होता है, ऐसी मान्यता थी। किन्तु ऐसा कहने से यदि कहीं यह भय होता कि बौद्ध लोग त्रास देंगे, तो अपवाद से यह भी कह दिया जाता था कि दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं जाता है ( नि० गा० ३२३)।
आज के श्वेताम्बर, संभवतः, उन दिनों 'सेयपढ' या 'सेयभिक्खु' (नि० गा० २५७३ चू०) के नाम से प्रसिद्ध रहे होंगे (नि० गा०२१४, १८७३ चू०)। श्रमणवर्ग के अन्दर पासस्था अर्थात् शिथिलाचारी साधुओं का भी वर्ग:विशेष था। इसके अतिरिक्त सारूनी और सिखात्र-सिद्धपुत्रियों के वर्ग भी थे। साधुनों की तरह वस्त्र और दंड धारण करने वाले, किन्तु कच्छ नहीं बाँधने वाले साख्वी होते थे। ये लोग भार्या नहीं रखते थे (नि० गा० ४५८७, ५५४८, ६२६६ )। इनमें चारित्र नहीं होता था, मात्र साधुवेश था ( नि० गा० ४६०२ चू०.) । सिद्धपुत्र गृहस्थ होते थे और वे दो प्रकार के थे-सभार्यक और प्रभार्यक२ । ये सिद्धपुत्र नियमतः शुक्लांबरधर होते थे। उस्तरे से मुण्डन कराते थे, कुछ शिखा रखते, और कुछ नहीं रखते थे। ये शुक्लांबरधर सिद्धपुत्र, संभवतः 'सेयवड' वर्ग से पतित, या उससे निम्न श्रेणी के लोग थे, परन्तु उनकी बाह्यवेशभूषा प्रायः साधु की तरह होती थी-(निगा०५८६)। आज जो श्वेताम्बरों में साघु और यति वर्ग है, संभवतः ये दोनों, उक्त वर्ग द्वय के पुरोगामी रहे हों तो आश्चर्य नहीं। सिद्धपुत्रों के वर्ग से निम्न श्रेणी
१. डंडकारण्य को उत्पत्ति के मूल में श्रमण-ब्राह्मण का पारस्परिक वैर ही कारण है-गा० ५७४०-३ । २. प्रभार्यक को मुंड भी कहते थे-५५४८ चू० । ३. नि० गा० ३४६ चू० । गा० ५३८ चू० । गा० ५५४८ हू० । गा० ६२६६ । वृ० गा. २६०३ ।
गा० ४५८७ में शिखा का विकल्प नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org