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निशीथ : एक अध्ययन
पुष्टि होती गई है। अवश्य ही ब्रह्मचर्य साधना कठिन है, तथापि इस दिशा में मार्ग ढूंढ निकालने के प्रयत्न भी सतत होते रहे हैं। मन जब तक कार्य शून्य रहता है, तभी तक कामसंकल्प सताते हैं; किन्तु मन को यदि अन्यत्र किसी कार्य में लगा दिया जाय तो काम-विजय सरल हो जाता है - इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को एक गांव की लड़की के दृष्टान्न से बहुत सुन्दर रीति से निरूपित किया है। वह लड़की निठल्ली थी, तो प्रपने रूप के शृंगार में रत रहती थी। फलतः उसे काम ने सताया। समझदार वृद्धा ने यही किया कि घर के कोठार को संभालने का सारा काम उसके सुपुर्द कर दिया। दिन भर कार्य व्यस्त रहने के कारण वह रात में भी थकावट अनुभव करने लगी, और उसका वह काम संकल्प कहाँ चला गया, उसे पता ही नहीं लगा। इसी प्रकार, गीतार्थ साधु भी, यदि दिनभर अध्ययन अध्यापन में लगा रहे, तो उसके लिये काम पर विजय पाना अत्यन्त सरल हो जाता है (नि० गा० ५७४ चूर्णि ) ।
मन्त्र प्रयोग के अपवाद :
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मूल निशीथ में मंत्र, तंत्र, ज्योतिष आदि के प्रयोग करने पर प्रायश्चित का विधान है । यह इसलिये ग्रावश्यक था कि उक्त मंत्र आदि प्राजीविका के साधन रूप प्रयुक्त होते रहे हैं। एक मात्र भिक्षा-चर्या से ही जीवन यापन का व्रत करने वालों के लिये किसी भी प्रकार के आजीविका सम्बन्धी साधनों का निषेध होने से मंत्रादि का प्रयोग भी निषिद्ध माना जाय - यह स्वाभाविक है ।
किन्तु संघबद्ध साधकों के लिए उक्त निषेध का पालन कठिन हो गया। मंत्र की शक्ति है या नहीं, यह प्रश्न गौण है । उक्त चर्चा का यहाँ केवल इतना ही तात्पर्य है कि जिस साधुसमुदाय में मन्त्र - प्रयोग निषिद्ध माना गया था, उसी समुदाय में उसका प्रयोग परिस्थिति वश करना पड़ा ।
अहिंसा - हिंसा की चर्चा करते समय, से साधुओं द्वारा मनुष्य हत्या भी की जाती थी करना है ।
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इस बात का निर्देश कर आए हैं कि मंत्रप्रयोग यहाँ उसके अलावा कुछ अन्य बातों का निर्देश
विद्या साधना श्मशान में होती थी, और उसमें हिंसा को स्थान था । जैनों के विषय में तो यह प्रसिद्धि रही है कि साधु तो क्या, एक गृहस्थ भी छोटी-सी चींटी तक की हिंसा करने में डरता है । प्रतएव विद्या साधन में जैनों की प्रवृत्ति कम ही रही होगी - ऐसा स्पष्ट होता है । फिर भी कुछ लोग विद्या-साधन करते थे, यह निश्चित है ।
विद्या साधना में साधक को ग्रसंदिग्ध रहना चाहिए, अन्यथा वह सिद्ध नहीं होती । यह बात भी निशीथ में एक जैन श्रावक के उदाहरण से स्पष्ट की गई है (नि० गा० २४ चूर्णि ) । निशीथ में तालुघाडणी = ताला खोल देना, ऊसोवणी = नींद ला देना, अंजनविजा = आँख में अंजन लगाकर अदृश्य हो जाना (नि० गा० ३४७ चूर्णि ), थंभणीविजा = किसी को
१. निशीथ में देखो, ११. ६६-६७, गा० ३३३६ से । उ० १३. १७-२७; उ० १३. ६६; १३.
७४-७८ ।
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