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ब्रह्मचर्य की साधना में कठिनाई : और उनका निवारण भिक्षु लोग किस तरह करते थे। आज यह चिकित्सा हमें कुछ अटपटीसी मलूम देती है, किन्तु सावक के समक्ष सदा से ही 'सर्वनाशे समुन्पन्न अर्ध त्यजति पंडितः' की नीति का अधिक मूल्य रहा है।
दीक्षालेनेवाले सभी स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य की साधना का ध्येय लेकर ही दीक्षित होते हैं-यह पूर्ण तथ्य नहीं। कुछ ऐसे भी होते हैं, जो गृहक्लेश या परस्पर असंतोष आदि के कारण से दीक्षित होते हैं। यदि ऐसे असन्तुष्ट दीक्षित स्त्री-पुरुष कहीं एकान्त पा जाएं, तो उनमें परस्पर कैसी बातचीत होती है और किस प्रकार उनका पतन होता है-इसका तादृशा चित्रण भो निशीथ में है। उसे पढ़कर लेखकं की मानस शास्त्र में कुशलता ज्ञात होती है, और सहसा बौद्ध थेर-थेरी गाथा स्मृतिपट पर आ जाती है । इस तरह के दुर्वल साधकों को ऐसा अवसर ही न मिले, इसकी व्यवस्था भी की गई है।
नपुसक को दीक्षा देने का निषेध है (नि० गा० ३५०५ )। अतएव, प्राचार्य इस विपय की विविध परीक्षा करते रहे, (नि० गा० ३५६४ से ६० गा० ५१४० से ), किन्तु सावधानी रखने पर भी नपुंसक व्यक्ति संघ में दीक्षित होते ही रहे। ऐसे व्यक्तियों द्वारा संघ और समाज में जो संयम-विराधना होती थी, भाष्यकार और चूर्णिकार ने उसका तादृश चित्रण उपस्थित किया है । वह ऐसा है कि ग्राज पढ़ा भी नहीं जा सकता, तो फिर उसके वर्णन का अवसर तो यहाँ है हो कहाँ। साथ में इतना अवश्य कहना चाहिए कि गीतार्थ प्राचार्यों ने संघ में अवांछनीय व्यक्ति प्रविष्ट न हो जाएं, इस ओर पूरा ध्यान दिया है। आधुनिक काल की तरह जिस-किसी को मूड लेने की प्रवृत्ति नहीं थी-यह भी स्पष्ट होता है । . स्त्री और पुरुष के शारीरिक रचना-भेद के कारण, ब्रह्मचर्य की रक्षा की दृष्टि से, दोनों के नियमों में कहीं-कहीं भेद करना पड़ता है। जिस वस्तु की अनुज्ञा भिक्षु के लिये है, भिक्षुणी के लिये उसका निषेध है। ऐसा तभी हो सकता है, जब कि मार्ग-दर्शक एक-एक वस्तु के विषय में सूक्ष्म निरीक्षण करे और स्वयं सतत जागरूक रहे। निशीथ में ऐसे सूक्ष्म निरीक्षण की कमी नहीं है। सामान्य सी मालूम देने वाली वस्तु में भी ब्रह्मचर्यभंग की संभावना किस प्रकार हो सकतो है-इस बात को जाने बिना, निशीथ में जो फलविषयक विधि-निषेध बताये गये हैं, वे कथमपि संभव नहीं थे ( नि० गा० ४६०८ से बृ० गा० १०४५ से )।
सार इतना ही है कि ब्रह्मचर्य की साधना, संघ में रहकर, अत्यंत कठिन है। और उक्त कठिनता का ज्ञान स्वयं महावीर को भी था। आगे चलकर परंपरा से इसकी उत्तरोत्तर १. नि. गा० ३७६; ५१६ से; ५८४ से; बृ० ४६३७ से; नि० ६१० से; नि० गा० १७४५ से;
बृ० गा० ३७६८ से । नि० गा० २२३० से। २. नि० गा० १६८३-१६६५; ५६२१; वृ० गा० ३७०७-३७१७ । नि० गा० १७८८ से । गुप्तलिपि
में किस प्रकार पत्र लिखे जाते थे, उदाहरण के लिये, देखो गा० २०६३-५ । ३. साध्वी स्त्री किस प्रकार वस्त्र प्रादि देकर प्राकृट की जाती थी, तथा स्त्री-प्रकृति किस प्रकार शीघ्र ___ फिसलने वाली होती है - इसके लिये, देखो-नि० गा० ५०७३-८२ । ४. सूत्रकृतांग प्रथम श्रुत स्कंध का चतुर्थ अध्ययन--'इत्योपरिणा' विशेषतः द्रष्टव्य है ।
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