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________________ ६.८ निशीथ : एक अध्ययन प्रतिसेवना संभव है। किन्तु अब्रह्मचर्य की सेवना रागद्वेष के अभाव में होती ही नहीं। अतएव ब्रह्मचर्य के विषय में अपवाद मार्ग है ही नहीं। अर्थात् ब्रह्मचर्य भंग के लिये यथोचित प्रायश्चित ग्रहण किए बिना शुद्धि संभव ही नहीं। कभी-कभी ऐसे प्रसंग भी आ जाते हैं, जबकि संयम जीवन की रक्षा के लिये भी ब्रह्मचर्य भंग करना पड़ता है। तब भी प्रायश्चित्त तो आवश्यक ही है। चाहे वह स्वल्प ही हो, किन्तु बिना प्रायश्चित के शुद्धि नहीं ; यह ध्रुव सिद्धान्त है। हिंसा आदि दोषों का सेवन, संयमजीवन के हेतु किया जाए, तो प्रायश्चित्त नहीं होता ; किन्तु ब्रह्मचर्य का भंग संयम के लिये भी किया जाए तब भी प्रायश्चित्त आवश्यक है (नि० गा० ३६३-६६५, बृ० ४६४३-४५) । शीलभंग के विषय में भी किसी विशेष परिस्थति में यतनापूर्वक कल्पिका प्रतिसेवना का होना संभव माना गया है। किन्तु प्रतिसेवक गीतार्थ, यतनाशील तथा कृतयोगी होना चाहिए, और साथ ही ज्ञानादि विशिष्ट कारण भी होने चाहिएं, तभी वह शीलभंग कर सकता है और निर्दोष भी माना जा सकता है। अन्य प्राचार्य के मत से यह शर्त भी रखी गई है कि वह रागद्वेष शून्य भी होना चाहिए। किन्तु मूलतत्त्व यही है कि मैथुन की कल्पिका प्रतिसेवना भी बिना राग-द्वेष के संभव नहीं है । अतएव कोई कितनी ही यतनापूर्वक प्रतिसेवना करे, फिर भी शुद्धि के लिए अल्प प्रायश्चित्त तो लेना ही पड़ता है (निगा० ३६६-७ बृ०गा० ४६४६-४६४७)। ___ कभी-कभी ऐसा प्रसंग पा जाता है कि संयमा मनुष्य को या तो मरण स्वीकार करना चाहिए या शीलभंग । ऐसे प्रसंग में जो साधक शीलभंग न करके मरण को स्वीकार करता है, वह शुद्ध है। किन्तु जो संयम के हेतु अपने जीवन की रक्षा करना चाहे, और तदर्थ शीलभंग करे, तो ऐसे व्यक्ति के शीलभंग का तारतम्य विविध प्रकार से होता है । इसका एक निदर्शन निशीथ में दिया है कि राजा के अन्तःपुर में पुत्रेच्छा से किसी साधु को पकड़ कर बंद कर दिया जाए तो कोई मरण स्वीकार कर लेता है, और कोई शीलभंग को अोर प्रवृत्त होता है । किन्तु प्रवृत्त होनेवाले के विविध मनोभावों को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्त का तारतम्य होता है। यह समग्र प्रकरण सूक्ष्म मनोभावों के विश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण नमूना बन गया है। शीलभंग करने की इच्छा नहीं है, उधर वासना पर विजय भी संभव नहीं२---ऐसी स्थिति में श्रमण या श्रमणो की क्या चिकित्सा की जाए; यह वर्णन भी निशीथ में है। उक्त प्रसंग में संयमरक्षा का ध्येय किस प्रकार कम से कम हानि उठाकर सिद्ध हो सकता है-इसी की ओर दृष्टि रखी गई है । प्रस्तुत समग्र वर्णन को पढ़ने पर अच्छी तरह पता लग जाता है कि ब्रह्मचर्य के जीवन में काम-विजय की साधना करते हुए क्या-क्या कठिइयां पाती थीं १. नि० गा० ३६८ से; ० गा० ४६४६ । २. नि० ५७६-७; दृ० ४६२६-३०; कामवासना बालक में भी संभव है, प्रतः बालक पुत्र और माता में भी रति की संभावना मानो गयी है। दृष्टान्त के लिये, देखो-गा० ३६६६-३७०० । वृ० गा० ५२१६-५२२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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