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________________ ब्रह्मचर्य की साधना में कठिनाई : निशोथ में किया गया है। किन्तु साथ ही इस तथ्य का भी निर्देश कर दिया है कि मरणासन्न स्थिति में भी तरुणी पुरुष-स्पर्श पाते ही किस प्रकार कामविह्वल बन जाती है, और चाहे पुरुष भाई ही क्यों न हो-वह पुरुष-स्पर्श के सुख का किस प्रकार आस्वादन कर लेती है ? (नि० गा० २३५१-५६, बृ० गा०.५२५ ४-५२५६)। यह कथा ब्रह्मचर्य का पालन कितना कठिन है, इस पोर संकेत करती है। मैथुन सेवा के कारणों में क्रोध, मात्सर्य, मान, माया, द्वेष, लोभ, राग आदि अनेक कारण होते हैं। और संयमी व्यक्ति किस प्रकार इन कारणों से मैथुन सेवन के लिये प्रेरित होता है----यह उदारणों के साथ निशीथ में निर्दिष्ट है' । किन्तु एक बात की ग्रोर विशेष ध्यान दिलाया है कि यद्यपि अब्रह्म सेवन की प्रेरणा उपयुक्त विविध कारणों से होती हैं ; तथापि यह सार्वत्रिक नियम है कि जब तक लोभ-राग आसक्ति नहीं होती, तब तक अब्रह्मसेवन संभव नहीं । अतएव मैथुन में व्यापक कारण राग है (नि० गा० ३५६) । भाववेद के साथ में द्रव्यवेद का परिवर्तन होता है या नहीं, यह एक चर्चा का विषय है । इस विषय पर निशीथ के एक प्रसंग से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । किस्सा यह है किकिसी भिक्षु की रति, जिसके यहाँ वह ठहरा हुआ था, उसकी कन्या में हो गई। प्रसंग पा भिक्षु ने कन्या का शीलभंग किया। मालुम होने पर कन्या के पिता ने, क्रुद्ध होकर, साधु का लिंगछेद कर दिया । अनन्तर उक्त साधु को एक बूढ़ी वेश्या ने अपने यहाँ रखा और उससे वेश्या का कार्य लिया। उक्त घटना के प्रकाश में, प्राचार्य ने अपना स्पष्ट अभिप्राय व्यक्त किया है कि उस साधु को. पुरुष, नपुसक और स्त्री तीनों ही वेद का उदय हुअा । (नि० गा० ३५६) । मैथुन सेवन में तारतम्य कई कारणों से होता है। इस दिशा में देव, मनुष्य, तिर्यश्न के २ पारस्परिक सम्बधजन्य अनेक विकल्पों का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त प्रतिसेव्य स्वयं हो या उसकी प्रतिमा-अर्थात् चेतन-अचेतन सम्बन्धी विकल्पजाल का वर्णन है । उक्त विकल्पों में जब प्रतिसेवक को मनोवृति के विकल्प भी जुड़ जाते हैं, तब तो विकल्पों का एक जटिल जाल ही बन जाता है। शीलभंग के लिये एक जैसा प्रायश्चित्त नहीं है, किन्तु यथा संभव उक्त विकल्पों से सम्बन्धित तारतम्य के आधार पर ही प्रायश्चित्त का तारतम्य निर्दिष्ट है। जिस प्रकार अहिंसा, सत्य प्रादि व्रतों में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग है, और इनके अपवादों का सेवन करके प्रायश्चित्त के बिना भी विशद्धि मानी जाती है ; क्या ब्रह्मचर्य के विषय में भी उसी प्रकार उत्सर्ग-अपवाद मार्ग है ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्य ने यह दिया है कि अन्य हिसा प्रादि बातों में तो दर्प और कल्प अर्थात् रागद्वेषपूर्वक और रागद्वेषरहित १. नि० गा० ३५५ से । साम्प्रदायिक विद्वष के कारण भिक्षुणियों के ब्रह्मचर्य का खंडन करना __ यह घृणित प्रकार भी निर्दिष्ट है -नि० गा० ३५७ । २. सिंहिनी और पुरुष के संपर्क का भी दृष्टान्त दिया गया है-नि० गा० ५१६२ चू० । ३. नि० गा० ३६०-३६२ ; गा० २१६६ से । गा० ५११३ से; ४० गा० २४६५ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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