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________________ ६६ निशीथ : एक अध्ययन प्राचीन ग्रन्थों की व्याख्यानों में प्रस्तुत निषेध को मूल में से खोजने का असफल प्रयत्न किया गया है । समुदाय में जहाँ साधु और साध्वी दोनों ही हों, वहाँ ब्रह्मचर्य की साधना कठिनतर हो जाती है, अस्तु साधना में, जहाँ कि निवृत्ति की दृष्टि हो, प्रचार में विधि की अपेक्षा निषेध को ही अधिक स्थान मिलता है' । मानव स्वभाव का और खास कर मानव को कामवृत्ति का गहरा ज्ञान, गीतार्थ आचार्यों को प्रारंभ से ही था - यह तो नहीं कहा जा सकता । किन्तु जैसेजैसे संघ बढ़ता गया होगा वैसे-वैसे समस्याएँ उपस्थित होती गई होंगी, और देशकालानुरूप उनका समाधान भी खोजा गया होगा - यही मानना उचित है । अतएव कामवृत्ति के विषय में, जो गहरा चिंतन, प्रस्तुत निशीथ से फलित होता है; उसे दीर्घकालीन अनुभवों का ही निचोड़ मानना चाहिए (नि० उद्देश १ सू० १-२ ) । सार यही है कि स्त्री और पुरुष परस्पर के प्रतिपरिचय में नहीं, किन्तु एक दूसरे से अधिकाधिक दूर रहकर ही अपनी ब्रह्मचर्य-साधना में सफल हो सकते हैं । ऐसा होने पर भी यदा कदा सामाजिक और राजकीय परिस्थितिवश साधु और साध्वीसमुदाय को निकट रहने के अवसर भी आ सकते हैं, और एक दूसरे की सहायता करने के प्रसंग भी । ऐसी स्थिति में किस प्रकार की सावधानी बरती जाय यह एक समस्या थी, जो तत्कालीन गीतार्थो के सामने थी । उक्त समस्या के समाधान की शोध में से ही मनुष्य की कामवृत्ति का गहरा चिंतन करना पड़ा है, और उसके फलस्वरूप बाद भी सावक किस प्रकार कामवृत्ति में फँसता है और फिसल जाता है, तथा उसके बचाव के लिये क्या करना उचित है - इन सब बातों का मर्मस्पर्शी चित्रण प्रस्तुत निशीथ में मिलता है। मनुष्य की कामवृत्ति के विविध रूपान्तरों का ज्ञान गीतार्थ प्राचार्यों को हो गया था, तभी तो वे उनसे बचने के उपाय ढूंढ़ निकालने की दिशा में सजग भाव से प्रयत्नशील थे । कामवृत्ति को वे स्वाभाविक नहीं, किन्तु प्रागन्तुक मानते थे । प्रतएव उन्हें कामवृत्ति का सर्वथा क्षय ग्रसम्भव नहीं, किन्तु सम्भव लगता था फलतः वे उसके क्षय के लिये प्रयत्नशील भी थे । संयम स्वीकार के तरुणी और रूपवती स्त्रियाँ भी दीक्षित होती थीं। मनचले युवक उनका पीछा करते थे और उनका शील भंग करने को उद्यत रहते थे। संघ के समक्ष, यह एक विकट समस्या थी । सामान्य तौर से भिक्षुणी के साथ किसी भिक्षु को रहने की मनाई थी । किन्तु जहाँ तरुणी साध्वी के शील की सुरक्षा का प्रश्न होता वहाँ ग्राचार्य भिक्षुत्रों को स्पष्ट ग्राज्ञा देते थे कि वे भिक्षुणी के साथ रहकर उसके शील की रक्षा करें। रक्षा करते हुए भिक्षु कितनो ही बार उद्दण्ड तरुणों को मार भी डालते थे; इस प्रसंग का वर्णन सुकुमालिका के कथानक द्वारा १. नि० उद्देश ६; नि० गा० २६६ से; नि० उद्देश १७, सू० १५-१२० नि० उद्द ेश ४, सू० २३, २४; नि० उद्द ेश. ७, सू० १-६१; नि० उद्देश ८, सू० १-११ । निशीथ के इन सभी सूत्रों में ब्रह्मचर्यं भंग- सम्बन्धी, प्रायश्चित की चर्चा है । २. नि उद्देश ४, सू० २३, २४, नि० गा० १६६६ से; बृ० गा० ३७२१ से नि० गा० १७४५ से; बृ० ३७६८ से । नि० गा० ३७७६ से । ३. राजा गर्दा मिल्ल और कालकाचार्य की कथा के लिये, देखो - नि० गा० २८६० चू० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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