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________________ ब्रह्मचर्य की साधना में कठिनाई : ६५ मिल जाए। अतएव अपवाद मार्ग का जो भी अवलंबन लिया जाता था, उसे गुप्त ही रखने का प्रयत्न किया जाता था (नि० चू० गा० ३४५ - ३४७) । जहाँ सब प्रकार के कष्टों को सहन करने की बात थी, वहाँ सब प्रकार की चिकित्सा करने-कराने की अनुज्ञा मिल गई । यह किसी भी परिस्थतियों में हुप्रा हो, किन्तु एक बात स्पष्ट है कि 'मनुष्य के लिये अपने जीवन की रक्षा का प्रश्न उपेक्षणीय नहीं है' - यह तथ्य कुछ काल के लिये उत्साह-वश भले ही उपेक्षित रह सकता है, किन्तु गंगीर विचारणा के अनन्तर, अन्ततः मनुष्य को बाध्य होकर उक्त तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ता है और कालिदास का 'शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम्' वाला कथन व्यावहारिक ही नहीं; किन्तु ध्रुव सत्य सिद्ध होता है । अतएव जिस साधु-संघ का यह उत्सर्ग मार्ग हो कि किसी भी प्रकार की चिकित्सा न करना ('तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा' - उत्तरा २. २३ ) ; उसे भी रोगावस्था में क्या-क्या साधन जुटाने पड़े और जुटाने में कितनी सावधानी रखनी पड़ीइसका जो तादृश चित्रण प्रस्तुत ग्रन्थ में है, ' वह तत्कालीन साधु-संघ की अपने धर्म के प्रति निष्ठा ही नहीं; किन्तु विवश व्यक्ति की व्यग्रता, भय, तथा प्रतिष्ठारतार्थ किये जानेवाले प्रयत्न ग्रादि का यथार्थ स्वरूप भी उपस्थित करता है । आज की दृष्टि से देखा जाए, तो यह सब माया जाल सा लगता है और एक प्रकार का दब्बूपन भी दीखता है; किन्तु जिस समय धार्मिक साधकों के समक्ष केवल अपने जीवन मरण का प्रश्न ही नहीं, किन्तु संघ - उच्छेद की विकट समस्या भी थी, उस समय वे अपनी जीवन - भूमिका के अनुसार ही अपना मार्ग तलाश कर सकते थे । अन्य प्रकार से कुछ भी सोचना, संभव है, तब उनके लिये संभव ही नहीं रह गया हो। जीवन में हिंसा और सत्य की प्रतिष्ठा क्रमशः किस प्रकार की गई, और उसके लिए साधकों को किस-किस प्रकार के भले बुरे मार्ग लेने पड़े- इस तथ्य के अभ्यासियों के लिये प्रस्तुत प्रकरण अत्यन्त महत्व का है । सार यही निकलता है कि रोग को प्रारंभ से ही दबाना चाहिए। उसकी उपेक्षा हानिकारक होती है । शरीर यदि मोक्ष का साधन है, तो आहार शरीर का साधन है । प्रतएव आहार की उपेक्षा नहीं की जा सकती है । ब्रह्मचर्य की साधना में कठिनाई : जैन संघ में भिक्षु और भिक्षुणी- दोनों के लिये स्थान है; किन्तु जिन कल्प में, जो साधना का उत्कट मार्ग है, भिक्षुणियों को स्थान नहीं दिया गया । इसका यह कारण नहीं कि भिक्षुणी, व्यक्तिगतरूप से, उत्कट मार्ग का पालन करने में समर्थ हैं । किन्तु सामाजिक परिस्थिति से बाध्य होकर ही प्राचार्यों ने यह निर्णय किया कि साध्वी स्त्री एकान्त में अकेली रहकर साधना नहीं कर सकती । जैनों के जिस सम्प्रदाय ने मात्र जिन कल्प के आचार को ही साध्वाचार माना और स्थविर कल्प के गच्छवास तथा सचेल प्रचार को नहीं माना, उनके लिये एक ही मार्ग रह गया कि वे स्त्रियों के मोक्ष का भी निषेध करें। प्रतएव हम देखते हैं कि ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद के दिगम्बर ग्रन्थों में स्त्रियों के लिये निर्वाण का निषेध किया गया है । और 1 १. नि० गा० २९७० - ३१०४; बृ० भा० गा० १८७१ - २००२ । २. नि० गा० ४८०६-७; बृ० गा० ६४७-८ । ३. नि० गा० ४१५७-४१६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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