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श्रीपाल - चरित्र
की
मेरे नगर और राज - प्रसाद को अपने आगमन से पावन करने कृपा करें; क्यों कि जिस तरह मरुभूमि के लोगों को आम्र-वृक्ष के दर्शन दुर्लभ होते हैं, उसी तरह हमलोगों के लिये भी आप जैसे प्रतापी पुरुषों के पवित्र दर्शन दुर्लभ हैं।" श्रीपाल ने महाकाल की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली; किन्तु इससे धवल सेठ को बहुत ही चिन्ता होने लगी। वह सोचने लगा :- "ऐसा न हो कि कुमार यहीं रह जायँ, तो मैं कहीं का न रहूँ ।" क्यों कि श्रीपाल के बिना उसका आगे बढ़ना असम्भव था । उसने श्रीपाल से कहा:- “आप जैसे पुण्यात्मा से सभी लोग प्रेम कर सकते है : किन्तु हमलोगों को रत्नद्वीप जाना है । यदि हमलोग इसी तरह जहाँ-कहीं रहने लगेंगे, तो वहाँ तक पहुँच ही न सकेंगे।”
श्रीपाल ने कहा :- "आपका कहना ठीक है; किन्तु किसी की प्रार्थना कैसे अस्वीकार की जाय ?"
उधर राजा महाकाल ने समूचे नगर को ध्वजा-पताकाओं से खूब सजाया था । स्थान-स्थान पर नृत्य और गायन का आयोजन किया था । यह सब श्रीपाल के ही निमित्त हुआ था। यथा समय श्रीपाल की सवारी निकली। बड़ी धूमके साथ सारे नगर में घूमती हुई महाकाल के राज प्रासाद में पहुँची ।
राजा महाकाल ने श्रीपाल के आदर-सत्कार और आतिथ्य में किसी प्रकार की कोर-कसर न रक्खी। इधर उधर की बहुत सी बातें होने के बाद, राजा ने अवसर देख, श्रीपाल से
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