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________________ १५० पन्द्रहवाँ परिच्छेद दिखायी दिये; किन्तु आपने सर्वनय सम्मत वीतराग परमात्मा का ही मार्ग ग्रहण किया और निश्चय-नय के पक्षपाती बनकर कर्म लेप रहित हुए हैं, अतएव आप मोक्ष मार्ग के पूर्ण अधिकारी बने हैं। हे स्वामिन् ! आपकी अनुभव शक्ति जागरित हो चुकी है अतएव आप अनुभवी योगी हैं। आप अपने अकषायी, अवेदी, अलेशी, अयोगी और अतीन्द्रिय प्रभृति गुणों के भोगी हैं। आप धर्म-संन्यासी हैं; तत्त्व मार्ग के प्रकाशक हैं, विभाग दशा को छोड़कर स्वभाव दशा में रमण करने के कारण आत्मदर्शी हैं और कषाय का त्याग कर उपशम रस बरसाने वाले होने के कारण उपशमवी है। इस उपशम रस की वर्षा से आपने अपने गुणरूपी उद्यान को सींचकर उसे बहुत ही परिपुष्ट बनाया है। मुनिराज छठे और सातवें गुणठाणों में निवास करते हैं। इस दोनों गुणठाणों की भिन्न-भिन्न स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और एकत्रित उत्कृष्ट स्थिति, देश से कुछ कम क्रोड़ पूर्व की हैं; किन्तु आप तो उन दो में से सातवें गुणठाणे में ही निवास करते हैं। यद्यपि संसार के क्रमानुसार आपको छठे प्रमत्त गुणठाने में जाना पड़ता है, किन्तु वहाँ आप लघु अन्तर्मुहूत्त. ही स्थिति करते हैं और अप्रमत्त गुणठाणे में उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त * चौथे गुणठाणासे धर्म-साधु संन्यासी कहलाते हैं। लघु अन्तर्मुहूर्त आठ-नव समय का और उत्कृष्ट अन्त मुहूर्त दो घड़ी में एक समय कम का कहलाता है। स्तुति के कारण ही यहाँ ग कहा गया है। वास्तव में जीव अधिकांश समय छठे गुणठाणे में ही रहता है। सातवें गुणठाणे में बहुत ही अल्प समय रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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