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________________ १५१ श्रीपाल-चरित्र स्थिति करते हैं। आपका रूप किसी को गम्यमान न होने के कारण आप अगम्य हैं। आपके अध्यवसाय चर्म-चक्षुओं से गोचर नहीं हो सकते अतएव आप अगोचर हैं। आप पाँचों इन्द्रियों को दमन कर सकते हैं और तृष्णा रूपी तृषा तो मानो आपको स्पर्श ही नहीं कर पाती। हे मुनिराज! आपकी बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार की मुद्रा परम सुन्दर है। ऊपर से आपकी आकृति बड़ी ही सुन्दर है, और गुणों के कारण अभ्यन्तर आकृति भी वैसी ही परम रमणीय है। गुणों के कारण आपकी तुलना इन्द्र के साथ की जा सकती है। आपकी बाह्य लीला आपके अभ्यन्तर की उपशम लीला को सूचित करती है; क्योंकि जब किसी वृक्ष के भीतर में अग्नि प्रज्वलित होता रहता है, तब वह बाहर से हरा-भरा नहीं दिखायी देता। __ हे मुनिराज ! आप वैरागी अर्थात् राग रहित हैं, त्यागी अर्थात् बाह्य 7 और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करनेवाले हैं। आप पूर्ण भाग्यशाली हैं। आपकी कुमति नष्ट हो गयी है और शुभमति जागरित हुई है। आप भवबन्धन से मुक्ति हो गये हैं। काका होने के कारण आप पहले से ही मेरे पूज्य थे, किन्तु अब आप समस्त संसार के पूज्य हो गये हैं। मैं पहले भी आपको वन्दन करता था, किन्तु अब V बाह्य परिग्रह का तात्पर्य स्त्री, पुत्र तथा धन-धान्य से और अभ्यन्तर परिग्रह का तात्पर्य विषय-कषायादिसे है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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