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________________ १४८ पन्द्रहवाँ परिच्छेद तलवार से क्रोध को निर्मूल कर दिया है। मृदुता-निरभिमानता रूपी वज्र से मद-अहंकार रूपी पर्वतों का चूर्णकर डाला है। सरलतारूपी कुदाली से माया की विष-वल्लरीको जड़मूल से नष्ट कर दिया है और निर्लोभ रूपी नौका द्वारा महान लोभसागर को पार करने में आपने सफलता प्राप्त की है। भवरूपी वृक्ष के मूल रूपी इन चार कषायों का आपने निकन्दन कर डाला है। साथ ही सुरासुर और मनुष्य मात्र को अहंकार रूप बलसे जीतने वाले कामदेवको भी आपने अपने पराक्रम से न केवल पराजित ही किया है, बल्कि उसे वश कर लिया है, किन्तु इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्यों कि जिस सिंह की गर्जना सुनकर हाथियों का भी चिंघाड़ना बन्द हो जाता है, वह सिंह भी अष्टापद के सामने बकरे की तरह दीन हो जाता है। आपने रति और अरति का निवारण किया है। भय को तो आपने अपने हृदय में स्थान ही नहीं दिया है। आपने बुरी इच्छाओं का भी त्याग किया है। पुद्गल और आत्मा को विनाशी एवं अविनाशी समझकर आपने अपने हृदय में उन्हें भिन्न-भिन्न स्थान दिया है, इसलिये आपको किसी वस्तु की इच्छा ही नहीं होती, क्योंकि पुद्गल नाशवान होने के कारण उसकी इच्छा ही करना व्यर्थ है और जो आत्मा अविनाशी है वह तो आपके पास ही है। परिषह की सेना आपसे युद्ध करने आयी थी, किन्तु मनोन्मत्त हाथी जिस प्रकार अकेला ही सबका सामना करता है, उसी प्रकार अकेले आपने ही उससे युद्ध कर उसे भगा दिया। इसके अतिरिक्त उपसगों ने आपके मोक्ष-मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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