SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल - चरित्र १४७ है, अतः नरक के सिवा मेरे लिये दूसरा स्थान ही नहीं है जो इन पापों से मुक्ति दिला सके? हैं, अवश्य ही है । जिनराज की प्रवज्या ग्रहण करने से ऐसे पापों से मुक्ति मिल सकती है, एवं उससे आत्मा का कर्म-मल दूर होकर वह भी शुद्ध हो सकती है। वह प्रवज्या दुःख रूपी बल्लरियों के वन को दहन करने के लिये दावानल के समान है । शिव-सुख रूप वृक्ष के मूल के समान है, गुण-समूह का आगार है, सब प्रकार की आपत्तियाँ उससे दूर हो सकती हैं। मोक्ष सुख के लिये वही आकर्षण है, भव भय के लिये वही निकर्षण है, कषायरूप पर्वत को भेदने के लिये वही वज्र है और नव कषाय रूप दावानल को प्रशमित करने के लिये मेघ के समान है। अजीतसेन के मन में इस प्रकार के उत्तम विचार उत्पन्न होने पर वे प्रवज्या के गुण ग्रहण करने एवं संसार के दोष समझने लगे। इससे मोह - मदिरा द्वारा चढ़ा हुआ उन्माद नष्ट होकर शुभ भावनायें अंकुरित होने लगीं। इस प्रकार मनोभावना के परिवर्तित हो जाने से पाप स्थिति नष्ट हो गयी और कर्म ने सहायता पहुँचायी; इसलिये तुरन्त ही राजा अजीतसेन को अपने पूर्व जन्म की स्मृति हो आयी । अन्त में उन्होंने उसी क्षण श्रीपाल के सम्मुख गार्हस्थ्य का त्याग कर चारित्र अंगीकार कर लिया। राजा अजीतसेन को इस प्रकार चारित्र सहित देखकर श्रीपाल कुमार को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे उसी समय सपरिवार उन्हें वन्दन कर इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे :- "हे मुनीश्वर ! आपने उपशम रूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy