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## Table of Contents **7** 36-52 53-61 62-66 67-70
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________________ विषयानुक्रमणिका पति के इस दुराग्रह से दुःखी है। रावण अपनी शस्त्रशाला में जाता है। वहाँ नाना प्रकार के अपशकुन होते हैं। मन्दोदरी मन्त्रियों को प्रेरणा देती है कि आप लोग रावण को समझाते क्यों नहीं ? मन्त्री, रावण की उग्रता का वर्णन कर जब अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं तब मन्दोदरी स्वयं पति की भिक्षा माँगती हुई रावण को सत्पथ का दर्शन कराती है। रावण कुछ समझता है, अपने आपको धिक्कारता भी है पर उसका वह विवेक स्थिर नहीं रह पाता है। रावण मन्दोदरी की कातरता को दूर करने का प्रयत्न करता है। रात्रि के समय स्त्री-पुरुष कल न जाने क्या होगा ?" इस आशंका से उद्वेलित हो परस्पर मिलते हैं । प्रातः आकाश में लाली फूटते ही युद्ध की तैयारी होने लगती है । चौहत्तरवाँ पर्व सूर्योदय होते ही रावण युद्ध के लिए बाहर निकलता है और बहुरूपिणी विद्या के द्वारा निर्मित हजार हाथियों से जुते ऐन्द्र नामक रथ पर सवार हो सेना के साथ आगे बढ़ता है। रामचन्द्र जी अपने समीपस्थ लोगों से रावण का परिचय प्राप्त कर कुछ विस्मित होते हैं। वानरों और राक्षसों का घनघोर युद्ध शुरू हो जाता है। राम ने मन्दोदरी के पिता 'मय' को बाणों से विहल कर दिया है- यह देख ज्योंही रावण आगे बढ़ता है त्योंही लक्ष्मण आगे बढ़कर उसे युद्ध के लिए ललकारता है कुछ देर तक वीर-संवाद होने के बाद रावण और लक्ष्मण का भीषण युद्ध होता है । पचहत्तरवाँ पर्व रावण और लक्ष्मण का विकट युद्ध दश दिन तक चलता है पर किसी की हार-जीत नहीं होती । चन्द्रवर्धन विद्याधर की आठ पुत्रियाँ आकाश में स्थित हो लक्ष्मण के प्रति अपना अनुराग प्रकट करती हैं । उन कन्याओं के मनोहर वचन श्रवण कर ज्योंही लक्ष्मण ऊपर की ओर देखता है त्योंही वे कन्याएँ प्रमुदित होकर कहती हैं कि आप अपने कार्य में सिद्धार्थ हों । 'सिद्धार्थ' शब्द सुनते ही लक्ष्मण को सिद्धार्थ शस्त्र का स्मरण हो आता है । वह शीघ्र ही सिद्धार्थ शस्त्र का प्रयोग कर रावण को भयभीत कर देता है। अब रावण बहुरूपिणी विद्या का आलम्बन लेकर युद्ध करने लगता है। लक्ष्मण एक रावण को नष्ट करता है तो उसके बदले अनेक रावण सामने आ जाते हैं। इस प्रकार लक्ष्मण और रावण का युद्ध चलता रहता है। अन्त में रावण चक्ररत्न का चिन्तवन करता है और मध्याह्न के सूर्य के समान देदीप्यमान चक्ररत्न उसके हाथ में आ जाता है। क्रोध से भरा रावण लक्ष्मण पर चक्ररन चलाता है। पर वह तीन प्रदक्षिणाएँ देकर उसके के हाथ में आ जाता है। छिहत्तरवाँ पर्व लक्ष्मण को चक्ररत्न की प्राप्ति देख विद्याधर राजाओं में हर्ष छा जाता है। वे लक्ष्मण को आठवाँ नारायण और राम को आठवाँ बलभद्र स्वीकृत करते हैं। रावण को अपनी दीन दशा पर मन-ही-मन पश्चात्ताप उत्पन्न होता है पर अहंकार के वश हो सन्धि करने के लिए उद्यत नहीं होता। लक्ष्मण मधुर शब्दों में रावण से कहता है कि तू सीता को वापस कर दे और अपने पद पर आरूढ़ हो लक्ष्मी का उपभोग कर। पर रावण मानवश ऐंठता रहा। अन्त में लक्ष्मण चक्ररत्न चलाकर रावण को मार डालता है और भय से भागते हुए लोगों को अभयदान की घोषणा करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only 7 ३६-५२ ५३-६१ ६२-६६ ६७-७० www.jainelibrary.org
SR No.001824
Book TitlePadmapuran Part 3
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages492
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size13 MB
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