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पमपुराणे
जनकः कनकश्चैव सम्यग्दर्शनतत्पराः । एते स्वशक्तियोगेन कर्मणा तुल्यभूतयः ॥१॥ ज्ञानदर्शनतुल्यौ द्वौ श्रमणौ लवणाङ्कुशौ । विरजस्कौ महाभागौ यास्यतः पदमक्षयम् ॥२॥ इत्युक्ते हर्पतोऽत्यन्तममरेन्द्रो महात्तिः । संस्मृत्य भ्रातरं स्नेहादपृच्छत्तस्य चेष्टितम् ॥३॥ भ्राता तवापि इत्युक्ने सीतेन्द्रो दुखितोऽभवत् । कृताञ्जलिपुटोऽपृच्छजातः क्वेति मुनीश्वर ॥४॥ पद्मनाभस्ततोऽवोचदच्युतेन्द्र मतं शृणु । चेष्टितेन गतो येन यत्पदं तव सोदरः ॥५॥ अयोध्यायां कुलपतिर्बहुकोटिधनेश्वरः । मकरीदयिता कामभोगो वज्राङ्कसंज्ञकः ॥८६॥ अतिक्रान्तो बहुसुतैः पार्थिवोपमविभ्रमः । श्रुत्वा निर्वासितां सीतामिति चिन्तासमाश्रितः ॥७॥ साऽत्यन्तसुकुमाराङ्गा गुणेदिव्यरलङ्कृता । कान्नु प्राप्ता वनेऽवस्थामिति दुःखी ततोऽभवत् ।।८।। स्थिताहृदयश्चासौ वैराग्यं परमाश्रितः । घुतिसंज्ञमुनेः पार्थे निष्क्रान्तो द्विष्टसंसृतिः ॥६॥ अशोकतिलकाभिख्यौ विनीतौ तस्य पुत्रको । निमित्तझं घुति प्रष्टुं पितरं जातुचिद्तौ । तत्रैव च तमालोक्य स्नेहाद् वैराग्यतोऽपि च । घुतिमूले व्यतिक्रान्तावशोकतिलकावपि ॥११ घुतिः परं तपः कृत्वा प्राप्य संक्षयमायुषः । दत्त्वा सानुजनोत्कण्ठामूर्द्धयेयकं गतः ॥१२॥ यथागुरुसमादिष्टं पिता-पुत्रौ त्रयस्तु ते । ताम्रचूदपुरं प्राप्तौ प्रस्थितौ वन्दितुं जिनम् ॥१३|
पञ्चाशद्योजनं तत्र सिकतार्णवमीयुषाम् । अप्राप्तानां च तावन्तं घनकालः समागतः ॥१४॥ सुप्रजा (सुप्रभा) और अपराजिता (कौशल्या), जनक तथा कनक ये सभी सम्यग्दृष्टि अपने-अपने सामर्थ्यके अनुसार बँधे हुए कर्मसे उसी आनत स्वर्गमें तुल्य विभूतिके धारक देव हैं ॥८०-८१॥ ज्ञान और दर्शनकी अपेक्षा समानता रखनेवाले लवण और अंकुश नामक दोनों महाभाग मुनि कर्मरूपी धूलिसे रहित हो अविनाशी पद प्राप्त करेंगे ॥८२।। केवलीके इस प्रकार कहनेपर सीतेन्द्र हर्षसे अत्यधिक सन्तुष्ट हुआ। तदनन्तर उसने स्नेह वश भाई-भामण्डलका स्मरणकर उसकी चेष्टा पूछी ॥८।। इसके उत्तरमें तुम्हारा भाई भी, इतना कहते ही सीतेन्द्र कुछ दुःखी हुआ। तदनन्तर उसने हाथ जोड़कर पूछा कि हे मुनिराज, वह कहाँ उत्पन्न हुआ है ? ।।८४॥ तदनन्तर पद्मनाभ (राम) ने कहा कि हे अच्युतेन्द्र ! तुम्हारा भाई जिस चेष्टासे जहाँ उत्पन्न हुआ है उसे कहता हूँ सो सुन ॥५॥
अयोध्या नगरीमें अपने कुलका स्वामी अनेक करोड़का धनी, तथा मकरी नामक प्रियाके साथ कामभोग करनेवाला एक 'वज्राङ्क' नामका सेठ था ॥८६॥ उसके अनेक पुत्र थे तथा वह राजाके समान वैभवको, धारण करनेवाला था। सीताको निर्वासित सुन वह इस प्रकारकी चिन्ताको प्राप्त हुआ कि 'अत्यन्त सुकुमाराङ्गी तथा दिव्य गुणोंसे अलंकृत सीता वनमें किस अवस्थाको प्राप्त हुई होगी' ? इस चिन्तासे वह अत्यन्त दुःखी हुआ ॥८७-८८।। तदनन्तर जिसके पास दयालु हृदय विद्यमान था, और जिसे संसारसे द्वेष उत्पन्न हो रहा था ऐसा वह वनाङ्क सेठ परम वैराग्यको प्राप्त हो धुति नामक मुनिराजके पास दीक्षित हो गया। इसकी दीक्षाका हाल घरके लोगोंको विदित नहीं था ॥८॥ उसके अशोक और तिलक नामके दो विनयवान् पुत्र थे, सो वे किसी समय निमितज्ञानी द्युति मुनिराजके पास अपने पिताका हाल पूछने के लिए गये ॥६०॥ वहीं पिताको देखकर स्नेह अथवा वैराग्यके कारण अशोक तथा तिलक भी उन्हीं द्युति मुनिराजके पादमूलमें दीक्षित हो गये ||६१॥ द्युति मुनिराज परम तपश्चरणकर तथा आयुका क्षय प्राप्तकर शिष्यजनोंको उत्कण्ठा प्रदान करते हुए ऊव ग्रेवेयकमें अहमिन्द्र हुए ॥२॥ यहाँ पिता और दोनों पुत्र मिलकर तीनों मुनि, गुरु के कहे अनुसार प्रवृत्ति करते हुऐ जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना करनेके लिए ताम्रचूडपुरकी ओर चले ॥६३।। बीचमें पचास योजन प्रमाण बालूका समुद्र (रेगिस्तान) मिलता था सो वे इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच पाये, बीच में ही वर्षा
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